जिनगी ला सजाय बर संगी, शहर आय ला पड़थे । दू रुपिय | हिंदी शायरी

"जिनगी ला सजाय बर संगी, शहर आय ला पड़थे । दू रुपिया पईसा बर, खुन पसीना बोहाय ला पड़थे । अऊ मन भितरी के दुःख पिरा ला मन मा राख के संगवारी,गर्मी हो या सर्दी रोज कमाय ला पड़थे । ©_Ram_Laxman_"

 जिनगी ला सजाय बर संगी, शहर आय ला पड़थे ।

दू रुपिया पईसा बर, खुन पसीना बोहाय ला पड़थे ।

अऊ मन भितरी के दुःख पिरा ला मन मा राख के

 संगवारी,गर्मी हो या सर्दी रोज कमाय ला पड़थे ।

©_Ram_Laxman_

जिनगी ला सजाय बर संगी, शहर आय ला पड़थे । दू रुपिया पईसा बर, खुन पसीना बोहाय ला पड़थे । अऊ मन भितरी के दुःख पिरा ला मन मा राख के संगवारी,गर्मी हो या सर्दी रोज कमाय ला पड़थे । ©_Ram_Laxman_

जिनगी ला सजाय बर संगी, शहर आय ला पड़थे ।

दू रुपिया पईसा बर, खुन पसीना बोहाय ला पड़थे ।

अऊ मन भितरी के दुःख पिरा ला मन मा राख के

संगवारी,गर्मी हो या सर्दी रोज कमाय ला पड़थे ।

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