वो मेरे शहर आया था
मेरे लिए झुमके लेकर
उसके साथ सफर में थी
हजारों ख़्वाहिशें उमंग
डर, उत्साह और अपार प्रेम |
उसकी नजरें ढूंढ रही थी मुझे
और मैं बदनसीब....
उसे मिल भी ना सकी।
भीतर ही घुटकर तड़पकर रह गई
रेत पर पड़ी मछली की तरह |
आपाधापी के साथ शाम ढली
और उसकी उम्मीदें भी
डूबते सूरज के साथ
सागर में समा गई।
जिस झुमके को इतने
प्यार से लिया था...
निराशा से फेंक दिया
वापस लौटते हुए |
आज भी एक हूक
एक कसर बाकी है मुझमें
कि काश...! उन झुमकों को
देख सकती मैं 🥺
मेरे कानों पर सजते वो
और फिर तुम दे देते
उस पर एक मधुर चुंबन |
-शिवानी त्रिपाठी 'सोना'
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