पिता को समर्पित... सुखा दरख़्त
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न पत्ता बचा न रही डाली
और न ही रही उस पर हरियाली
वो... दरख़्त बस मायूस खड़ा है।
न आती बहारे न मौसम बदलते
न लौट के आती अब खुशहाली
वो... दरख़्त बस मायूस खड़ा है।
न तूफान डराते न बारिश में भीगाते
देखो कैसी हुई उसकी अब बदहाली
वो... दरख़्त बस मायूस खड़ा है।
न पंछी आते न घर बसाते
किस की करे वो अब रखवाली
वो... दरख़्त बस मायूस खड़ा है।
अड़ा कड़ी धूप में ठूंठ बनके
न बैठक होती वहां अब पंचों वाली
वो... दरख़्त बस मायूस खड़ा है।
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