सच के साथ खड़े रहने की कीमत बहुत चुकाई है।
ऐसे ही थोड़ी ये दुनियाँ साथ हमारे आई है।
शहद बनाने वाली मक्खी डंक मारती है अक्सर,
बच के रहना उनसे जिनके लब पे बहुत मिठाई है।
चूम ही लेते अधर तुम्हारे ये अनछुए अगर होते,
कुल्हड़ की मर्यादा सच्ची तू गिलास हरजाई है।
ग़ैरों से शिकवा कैसा ग़ैरों ने सिर्फ हवा दी है,
ये अपनों की साज़िश थी अपनों ने आग लगाई है।
मेरे ग़म से इतनी भी दिलचस्पी क्यों दुनियाँ वालों,
मेरा सर है उसका पत्थर तुमको क्या कठिनाई है।
जिसे ग़ज़ल कहती है दुनियाँ वह पीड़ा का है दर्शन,
ये शायर के दिल से पूछो इक कड़वी सच्चाई है।
अपनी परछाई से भी 'नाचीज़' भरोसा टूट रहा,
राम -भरत सा प्यार कहाँ , भाई का दुश्मन भाई है।
✍ जे0 पी0 'नाचीज़'
जे पी नाचीज की गज़ल