यूं अकेला न पाया खुद को कभी, जब से खुद से अलग हुआ | हिंदी Poetry

"यूं अकेला न पाया खुद को कभी, जब से खुद से अलग हुआ हूं मैं। न दोस्त, न दोस्ती ! सबसे अलग हुआ हूं मैं। कोई उपयोगिता रही न अब, इतना उपयोग हुआ हूं मैं। जलते कोयले जैसे, अब खाक हुआ हुआ हूं मैं। अपने सफ़र का एक अकेला राही, एक अनजान पथ हुआ हूं मैं। अपनों से ही छला गया, एक छलित हुआ हूं मैं। कोई शोर नही सुनता मुझे, ऐसा बघिर हुआ हूं मैं। अपना दर्द नहीं बयान कर सकता, ऐसा गूंगा हुआ हूं मैं। मन की इस हताशा से, अब घायल हुआ हूं मैं। सबका अब क्या करूं? ऐसा विचलित हुआ हूं मैं। जीवन के पथ में, अकेला हुआ हूं मैं। खुद को कोसता हुआ, क्या कलंकित हुआ हूं मैं? इस सोच में डूबा हुआ, एक अन्वेषी हुआ हूं मैं। समय की रफ्तार को रोक दू, ऐसा योगी हुआ हूं मैं जीवन पथ को हूं रोक दूं, ऐसा हितैषी हुआ हूं मैं। अनजानी सी राखों में मिलने का, एक संगम हुआ हूं मैं। नदियों में घुलने का, एक मोक्षी हुआ हूं मैं। ©Ajay Shrivastava"

 यूं अकेला न पाया खुद को कभी, जब से खुद से अलग हुआ हूं मैं।
न दोस्त, न दोस्ती ! सबसे अलग हुआ हूं मैं।
कोई उपयोगिता रही न अब, इतना उपयोग हुआ हूं मैं।
जलते कोयले जैसे, अब खाक हुआ हुआ हूं मैं। 
अपने सफ़र का एक अकेला राही, एक अनजान पथ हुआ हूं मैं।
अपनों से ही छला गया, एक छलित हुआ हूं मैं।
कोई शोर नही सुनता मुझे, ऐसा बघिर हुआ हूं मैं।
अपना दर्द नहीं बयान कर सकता, ऐसा गूंगा हुआ हूं मैं।
मन की इस हताशा से, अब घायल हुआ हूं मैं।
सबका अब क्या करूं? ऐसा विचलित हुआ हूं मैं।
जीवन के पथ में, अकेला हुआ हूं मैं।
खुद को कोसता हुआ, क्या कलंकित हुआ हूं मैं?
इस सोच में डूबा हुआ, एक अन्वेषी हुआ हूं मैं।
समय की रफ्तार को रोक दू, ऐसा योगी हुआ हूं मैं
जीवन पथ को हूं रोक दूं, ऐसा हितैषी हुआ हूं मैं।
अनजानी सी राखों में मिलने का, एक संगम हुआ हूं मैं।
नदियों में घुलने का, एक मोक्षी हुआ हूं मैं।

©Ajay Shrivastava

यूं अकेला न पाया खुद को कभी, जब से खुद से अलग हुआ हूं मैं। न दोस्त, न दोस्ती ! सबसे अलग हुआ हूं मैं। कोई उपयोगिता रही न अब, इतना उपयोग हुआ हूं मैं। जलते कोयले जैसे, अब खाक हुआ हुआ हूं मैं। अपने सफ़र का एक अकेला राही, एक अनजान पथ हुआ हूं मैं। अपनों से ही छला गया, एक छलित हुआ हूं मैं। कोई शोर नही सुनता मुझे, ऐसा बघिर हुआ हूं मैं। अपना दर्द नहीं बयान कर सकता, ऐसा गूंगा हुआ हूं मैं। मन की इस हताशा से, अब घायल हुआ हूं मैं। सबका अब क्या करूं? ऐसा विचलित हुआ हूं मैं। जीवन के पथ में, अकेला हुआ हूं मैं। खुद को कोसता हुआ, क्या कलंकित हुआ हूं मैं? इस सोच में डूबा हुआ, एक अन्वेषी हुआ हूं मैं। समय की रफ्तार को रोक दू, ऐसा योगी हुआ हूं मैं जीवन पथ को हूं रोक दूं, ऐसा हितैषी हुआ हूं मैं। अनजानी सी राखों में मिलने का, एक संगम हुआ हूं मैं। नदियों में घुलने का, एक मोक्षी हुआ हूं मैं। ©Ajay Shrivastava

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