मासूमियत का गला घोंट कर अक्लमंद बना रहा हु तुम्हे | हिंदी कविता

"मासूमियत का गला घोंट कर अक्लमंद बना रहा हु तुम्हे कह कर बिना गलतियों के सजाए दे कर ये कहा उसने की आखिर कमी ही क्या रह गई एक अटल आत्मविश्वास को अपने पैरो में रौंद कर हर ख्वाइश को बचपने का नाम दे कर उसने ये कहा कि आखिर कमी ही क्या रह गई गुमनाम से मेरे नाम को बेनाम कह कर मेरे अश्कों को नौटंकी सरेआम कह कर मेरे साफ सुथरे रिस्तो को बदनाम कह कर और मेरे सीने की धड़कन को हराम कह कर उसने ये कहा कि आखिर कमी ही क्या रह गई मेरे आत्मसम्मान को आंधी को तरह झकझोर कर और पैरो में कुछ खुली सी बेडिया मरोड़ कर उसने ये कहा कि आख़िर कमी ही क्या रह गई हर ज़ख्म को अपने शब्दों के खंजर से खुरेद कर एक दिन इश्क जता कर चार दिन अगले फिर से रुलाकर फिर अगले दिन मोहोबत का पैगाम दिखा कर फिर से उसने यही कहा कि आखिर कमी ही कहा रह गई ©Pini KUMAWAT"

 मासूमियत का गला घोंट कर अक्लमंद बना रहा हु तुम्हे कह कर
बिना गलतियों के सजाए दे कर 
ये कहा उसने की आखिर कमी ही क्या रह गई 
एक अटल आत्मविश्वास को अपने पैरो में रौंद कर 
हर ख्वाइश को बचपने का नाम दे कर 
उसने ये कहा कि आखिर कमी ही क्या रह गई 
गुमनाम से मेरे नाम को बेनाम कह कर
मेरे अश्कों को  नौटंकी सरेआम कह कर
मेरे साफ सुथरे रिस्तो को बदनाम कह कर
और मेरे सीने की धड़कन को हराम कह कर 
उसने ये कहा कि आखिर कमी ही क्या रह गई
मेरे आत्मसम्मान को आंधी को तरह झकझोर कर 
और पैरो में कुछ खुली सी बेडिया मरोड़ कर
उसने ये कहा कि आख़िर कमी ही क्या रह गई 
हर ज़ख्म को अपने  शब्दों के खंजर से खुरेद कर 
एक दिन इश्क जता कर 
चार दिन अगले फिर से रुलाकर 
फिर अगले दिन मोहोबत का पैगाम दिखा कर 
फिर से उसने यही कहा कि आखिर कमी ही कहा रह गई

©Pini KUMAWAT

मासूमियत का गला घोंट कर अक्लमंद बना रहा हु तुम्हे कह कर बिना गलतियों के सजाए दे कर ये कहा उसने की आखिर कमी ही क्या रह गई एक अटल आत्मविश्वास को अपने पैरो में रौंद कर हर ख्वाइश को बचपने का नाम दे कर उसने ये कहा कि आखिर कमी ही क्या रह गई गुमनाम से मेरे नाम को बेनाम कह कर मेरे अश्कों को नौटंकी सरेआम कह कर मेरे साफ सुथरे रिस्तो को बदनाम कह कर और मेरे सीने की धड़कन को हराम कह कर उसने ये कहा कि आखिर कमी ही क्या रह गई मेरे आत्मसम्मान को आंधी को तरह झकझोर कर और पैरो में कुछ खुली सी बेडिया मरोड़ कर उसने ये कहा कि आख़िर कमी ही क्या रह गई हर ज़ख्म को अपने शब्दों के खंजर से खुरेद कर एक दिन इश्क जता कर चार दिन अगले फिर से रुलाकर फिर अगले दिन मोहोबत का पैगाम दिखा कर फिर से उसने यही कहा कि आखिर कमी ही कहा रह गई ©Pini KUMAWAT

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