कविता
करूपता क्यो एक पहर
रात देह चमकने लगी जब मेरी
तो फ़िर चमकने लगा नूर सारा
फ़िर क्यो किसी ने नही मुझे
करूपता का थप्पड़ मारा
क्यो दिल के उजालों में धुंधली सी दिखती हूँ
फ़िर रात के अंधेरो में मैं सरेआम बिकती हूँ
अस्तिवता के मेंरे पंख तोड़े जाते हैं
विनम्रता के शंख फ़िर जोड़े जाते हैं
लगा कर मुझ पर रीति रिवाजों का पहर
मेंरे कदम फ़िर तो मोड़े जाते हैं
मैं समझ ना पाई ख़ुद पर इस घृणा को
जिसका चारों तरफ पहर हैं
सांवली सी सूरत पर
ना कोई शहर हैं
क्यो हूँ मैं निराकार मेरा कोई आकार नही
क्य़ा सुंदरता पर मेरा कोई अधिकार नही
गीता शर्मा
नई दिल्ली
©Writer Geeta Sharma
#sunlight great poetry राष्टीय कवि गीता शर्मा