गगन में टूटता हमने कभी तारा नहीं देखा ।
बसा करके तुम्हें आँखों में दोबारा नहीं देखा।
ये छायी लालिमा आँखों में मेरी देखते हैं सब,
बदन के ताप से पिघला हुआ पारा नहीं देखा।
परिंदे फड़फड़ाते हैं वहीं इस दौर में अक्सर,
जिन्होंने दूर तक फैला जहाँ सारा नहीं देखा।
थके हारे हुए मन से यही तो सोचते हैं सब,
कि अपने आप सा हमने कोई हारा नहीं देखा।
समन्दर की सदा पा कर नदी जो भूल जाते हैं,
हमें लगता उन्होंने प्यास का मारा नहीं देखा।
विनय शुक्ल 'अक्षत '
ग़ज़ल