दास विजय नहीं जो खुद पर पाता बन जाता है दास इक पि | हिंदी कविता

"दास विजय नहीं जो खुद पर पाता बन जाता है दास इक पिजरे में कैदी बनता घुटती रहती साँस मन उसको कर लेता वश में हरदम है भटकाता छल से है विवेक छीनकर कर देता है नाश सदा लक्ष्य से दूर भटकता लगता कभी न हाथ मन उसको करने नहीं देता मन से उस प्रयास बेखुद दास बनाए मन को वही बने दिग्विजयी जीवन में हर बाधा की वह करता सत्यानाश ©Sunil Kumar Maurya Bekhud"

 दास

विजय नहीं जो खुद पर पाता
बन जाता है दास
इक पिजरे में कैदी बनता
घुटती रहती साँस

मन उसको कर लेता वश में
हरदम है भटकाता
छल से है विवेक छीनकर
कर देता है नाश

सदा लक्ष्य से दूर भटकता
लगता कभी न हाथ
मन उसको करने नहीं देता
मन से उस प्रयास

बेखुद दास बनाए मन को
वही बने दिग्विजयी
जीवन में हर बाधा की वह
करता सत्यानाश

©Sunil Kumar Maurya Bekhud

दास विजय नहीं जो खुद पर पाता बन जाता है दास इक पिजरे में कैदी बनता घुटती रहती साँस मन उसको कर लेता वश में हरदम है भटकाता छल से है विवेक छीनकर कर देता है नाश सदा लक्ष्य से दूर भटकता लगता कभी न हाथ मन उसको करने नहीं देता मन से उस प्रयास बेखुद दास बनाए मन को वही बने दिग्विजयी जीवन में हर बाधा की वह करता सत्यानाश ©Sunil Kumar Maurya Bekhud

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