"मेरा जो घर था, वो घर कहाँ गया?
अपनों का डर था, वो डर कहाँ गया?
जो बताते रहता है मेरी गलतियाँ मुझे;
खुद पर आ ई, तो घबरा कर कहाँ गया?
पता है मुझे की वो तो चला गया है;
कोई पता तो करो, मग़र कहाँ गया?
यार पीठ पर तेरी इतने खंज़र कैसे;
इंसान पहचान ने का हुनर कहाँ गया?
वहाँ तो हमेशा उजाला ही होता है;
रोशनी फ़ैलाने 'दीप' तू उधर कहाँ गया?"