फ़िसल जो ये रहे लम्हे मिरे आगे,
वही निखरे थे क्या पहले मिरे आगे ।
कभी जो खोल दी ये बंद मुट्ठी तो,
बिखरते ख़्वाब के टुकड़े मिरे आगे ।
नहीं सोता तो दिखते हैं मुझे अक़्सर
मिरे माज़ी के अफ़साने मिरे आगे ।
मिरा है ख़्वाब हर बुलबुल फ़लक पर हो,
सभी तू पिंजड़े रख दे मिरे आगे ।
उठाऊँ ये कदम किस ओर मैं 'बाबा',
पड़े हैं स्याह से रस्ते मिरे आगे ।
✍ कुनाल पंत 'बाबा'
एक ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है 😊
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