फ़िसल जो ये रहे लम्हे मिरे आगे, वही निखरे थे क्या प | हिंदी शायरी

"फ़िसल जो ये रहे लम्हे मिरे आगे, वही निखरे थे क्या पहले मिरे आगे । कभी जो खोल दी ये बंद मुट्ठी तो, बिखरते ख़्वाब के टुकड़े मिरे आगे । नहीं सोता तो दिखते हैं मुझे अक़्सर मिरे माज़ी के अफ़साने मिरे आगे । मिरा है ख़्वाब हर बुलबुल फ़लक पर हो, सभी तू पिंजड़े रख दे मिरे आगे । उठाऊँ ये कदम किस ओर मैं 'बाबा', पड़े हैं स्याह से रस्ते मिरे आगे । ✍ कुनाल पंत 'बाबा'"

 फ़िसल जो ये रहे लम्हे मिरे आगे,
वही निखरे थे क्या पहले मिरे आगे ।

कभी जो खोल दी ये बंद मुट्ठी तो,
बिखरते ख़्वाब के टुकड़े मिरे आगे ।

नहीं सोता तो दिखते हैं मुझे अक़्सर 
मिरे माज़ी के अफ़साने मिरे आगे ।

मिरा है ख़्वाब हर बुलबुल फ़लक पर हो,
सभी तू पिंजड़े रख दे मिरे आगे ।

उठाऊँ ये कदम किस ओर मैं 'बाबा',
पड़े हैं स्याह से रस्ते मिरे आगे ।

✍ कुनाल पंत 'बाबा'

फ़िसल जो ये रहे लम्हे मिरे आगे, वही निखरे थे क्या पहले मिरे आगे । कभी जो खोल दी ये बंद मुट्ठी तो, बिखरते ख़्वाब के टुकड़े मिरे आगे । नहीं सोता तो दिखते हैं मुझे अक़्सर मिरे माज़ी के अफ़साने मिरे आगे । मिरा है ख़्वाब हर बुलबुल फ़लक पर हो, सभी तू पिंजड़े रख दे मिरे आगे । उठाऊँ ये कदम किस ओर मैं 'बाबा', पड़े हैं स्याह से रस्ते मिरे आगे । ✍ कुनाल पंत 'बाबा'

एक ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है 😊
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