संघर्षों में, मैं पला बड़ा संघर्षों से ही मैं जूझत | हिंदी कविता

"संघर्षों में, मैं पला बड़ा संघर्षों से ही मैं जूझता आया। कहां थी मंजिल मुझे मिलनी इतनी आसान..? खुद को जला के संघर्षों से मैं लड़ता आया। न जाने क्यों कई बार मैं कहाँ कहाँ लटक लटक के राह में भटक भटक के संघर्षों की डगर में अटक अटक के कई बार दरवाजों में सर पटक पटक के रोया हूं। बिना आंसुओं के कई बार सिसक सिसक के अब क्या बताऊं तुम्हें हाल ए गम..? जल रही है अभी भी सीने में आग धधक धधक के। नहीं मानूंगा हार यूं ही ए जिंदगी। लड़ता रहूंगा आखिरी सांस तक चाहे मेरा दम निकल जाए यूं ही घुटक-घुटक के। ©Rajesh Kothari"

 संघर्षों में, मैं पला बड़ा
संघर्षों से ही मैं जूझता आया।
कहां थी मंजिल मुझे मिलनी इतनी आसान..?
खुद को जला के संघर्षों से मैं लड़ता आया।
न जाने क्यों कई बार मैं
कहाँ कहाँ लटक लटक के 
राह में भटक भटक के 
संघर्षों की डगर में अटक अटक के
कई बार दरवाजों में सर पटक पटक के
रोया हूं। बिना आंसुओं के
कई बार सिसक सिसक के
अब क्या बताऊं तुम्हें हाल ए गम..?
जल रही है अभी भी सीने में आग 
धधक धधक के।
नहीं मानूंगा हार यूं ही ए जिंदगी।
लड़ता रहूंगा आखिरी सांस तक 
चाहे मेरा दम निकल जाए 
यूं ही घुटक-घुटक के।

©Rajesh Kothari

संघर्षों में, मैं पला बड़ा संघर्षों से ही मैं जूझता आया। कहां थी मंजिल मुझे मिलनी इतनी आसान..? खुद को जला के संघर्षों से मैं लड़ता आया। न जाने क्यों कई बार मैं कहाँ कहाँ लटक लटक के राह में भटक भटक के संघर्षों की डगर में अटक अटक के कई बार दरवाजों में सर पटक पटक के रोया हूं। बिना आंसुओं के कई बार सिसक सिसक के अब क्या बताऊं तुम्हें हाल ए गम..? जल रही है अभी भी सीने में आग धधक धधक के। नहीं मानूंगा हार यूं ही ए जिंदगी। लड़ता रहूंगा आखिरी सांस तक चाहे मेरा दम निकल जाए यूं ही घुटक-घुटक के। ©Rajesh Kothari

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