स्याह अंधेरी सी
हवाओं की सहेली वो रात
मुझे मिलती नहीं
जिसके आग़ोश में दोनो बैठे बुझी -बुझी सी
राख में इक चिंगारी धूंडा करते
वो रात अब मुझे मिलती नहीं
वो रात जिसके स्याह सन्नाटे में कुछ शब्द बुनते
वहीं बैठे थे
वो रात मुझे अब मिलती नहीं
मैं खोजता हूँ ख़ुद को और ख़ुद में कहीं तुमको
इस सफ़र में एक रश्मि बिंदु
देखने की कोशिश करता
दिन के उजाले चकाचौंध कर देते है
छीन लेते है जुगनुओं का सारा प्रकाश
भर देते हैं बेइंतहा न ख़त्म होने वाला शोर
मै रात की तनहाइयों की गुफ़्तगू सोचता हूँ
मै सोचता हूँ जुगनुओं का मद्धम आलोक
स्याह का मौन
मै जनता हूँ तुम्हें पाना शांत होना है
चकचौध नहीं, व्यग्रता नहीं
मुझे वो रात नहीं मिलती
जिसके आग़ोश में दोनो बैठे…..
©Pramod Pandey
स्याह मौन
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