एक ख़त्म तो दूजा हो गया है शुरु...
कोई सफर आख़िरी नहीं यहाँ पर..!
दिल के टुकड़े हो गए हैं हजार...
काटने को दौड़ रहा अपना ही घर..!
ना मंजिल मिला न मिल रहे रास्ते...
करूं आख़िर और कितना सबर..!
ना आस बाकि है ना ही विश्वास...
जी रहा हूँ देखो मैं रोज मर-मर.!!
©Dhani Dahire
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