White ढूंढता हूँ उसे सबकी भीड़ में
पर उसे कही नहीं पाता
शायद इसीलिए मैं अब छठ घाट नहीं जाता
हालांकि रंगीन कपड़ों में बच्चों को देखता हूं भागते हुए
खेतों की पगडंडियों पे सबको लहराते हुए
कमजोर सा शरीर लिए मांओ का दउरा उठाते हुए
इस भीड़ में कही अपना वो दउरा नहीं पाता
शायद इसीलिए मैं अब छठ घाट नहीं जाता
घाट कि सफाई आज भी बड़े जुनून में करते हैं मेरे दोस्त
आज भी फावड़ा,कुदाल,टोकरी लिए घर आते हैं मेरे दोस्त
आज भी बचपन के पल्लू तले बेशक बुलाते हैं मेरे दोस्त
पर उनके साथ कैसे जाऊं,कोई मां के कातर स्वर नहीं सुनाता
शायद इसीलिए मैं अब छठ घाट नहीं जाता
राजीव
©samandar Speaks
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