इस रंगीन शहर में मुझको
सब कुछ बेगाना लगता है
आकर्षक चेहरे हैं लेकिन
हर चेहरा जल हीन नदी सा
दरवाज़ों तक आते-आते
यहां रोशनी मर जाती है
यूं ही अंधे गलियारों में
सारी उमर गुज़र जाती है
थके थके बोझिल माथो पर
अंकित सूर्य अस्त की छाया
कैसे गीत सुबह के गाऊ
गायक हूं जन्मांध सदी का
हरियाली का खून हो गया
आग लगी है चंदन बन में
भटक रहीं नंगी आवाज़े
कोलाहल रत परिवर्तन में
कटी भुजाएं टूटा पहिया
रेंग रही विकलांग सभ्यता
अंतरिक्ष यात्री सा कोई
भेद रहा अज्ञात दिशाएं
धंसती हुई परिस्थितियों में
ऊपर आना सहज नहीं है
झुठलाये सत्यो को आज
देनी होगी अग्निपरीक्षा !!!
©Mukta Misra
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# कविता# मुक्ता मिश्रा#