की काश अपना भी गावँ शहर के पास होता
तो ये बड़ा शहर जो पाराया सा लगता है वो भी खाश होता।।
जल्दी होती मुझें भी हर शनिवार को आफिस से जल्दी छूटने की और
शाम की सबसे पहले वाली वाली बस पकड़ने की,
मैं भी जाता संडे को दोस्तों की चौपाल पर और शहर की नौकरी वाला हाल कहता।।
माँ भी इंतजार में पकाती मेंरे पसंद की पकवान,
पापा भी उस दिन ले आते मेरी जरुतों के समान
संग होता परिवार लोगों की बाते और जो नहीं मिलता शहरों में वो पाता मैं सम्मान।।
की काश अपना भी गावँ शहर के पास होता
तो ये बड़ा शहर जो पाराया सा लगता है वो भी खाश होता।।
दूर होकर घर से जीना कौन चाहता है घुट घुट के दूरी अपनों की पीना कौन चाहता है।
ज़िन्दगी मिली है खुल कर जीना है बड़े शहरों में,
ऐसा सोचा था।
पर अब तो बस कब घर जाऊ कब अगले महीने होली फिर दीपावली आये यही आस लगी है।
ज़िन्दगी दूर और उम्मीदे खास लगी है
अब बस हर पल मन यहीं कहता है
की काश अपना भी गावँ शहर के पास होता
तो ये बड़ा शहर जो पाराया सा लगता है वो भी खाश होता।।
©Anish Sinha (Silent_Soul)
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