सूर्य की उष्ण किरणों से
हिम से निकली दिव्य धारा
पर्वतों से निकलकर
चल पड़ी वो कर्मपथ पर
यात्रा के पड़ावों का कहाँ अहसास था
जो हिम कभी अस्तित्व था
उसमें कहाँ अब वास था
पर चल पड़ी वो निष्काम अविरल
कुछ तो उसमें विश्वास था
दूध सी वो स्वेत धारा
जिसने जीवन का एक नज़रिया उभारा
बस जहाँ गयी उजाला करती गयी
सबके दुःखो को वो हरती गयी
ख़ुद का आँचल भले मैला हो गया
फिर भी सभी का तम वो हरती गयी
एक माँ की तरह सबको रखकर
सबका भरण -पोषण वो करती रही
एक दायित्व हमारा भी बनता है
इसको साफ रखने का कर्तव्य बनता है
यूँ ही बहती रहे ये निर्मल धारा
शिव की जटाओं से निकली ये धारा
जिसकी पूजा करता है जग सारा
पतित पावनी माँ गंगा
तुम्हें सत-सत नमन हमारा
(सचिन चमोला )
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