ये मजबूरी का बस्ता और किलकारी कांधे पर हम ले चले
उसी गांव की तरफ जहां से निकले थे दो जून की रोटी कमाने
जिंदगी कि फिक्र, फिर जोड़ेगा उसी पुराने छप्पर वाले घर से
उसी पुराने दरख़्त के नीचे फिर सुकून के पल गुजरेंगे
रोटी कम होगी, पर खुशियां अपार
हां शहर से पैसे कमाकर ही तो
छप्पर की जगह घर की छत बनवानी थी
हां मां की आंखों का ऑपरेशन होना था
बहन की शादी के लिए तो पैसे जुटाने थे
इन सपनों पर पानी तो फिर गया
लेकिन उस पुराने घर से फिर जुड़ गए😢
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