इंसानों की भीड़ में हैवानों को देखा है। किसी ने नन्ही जान तो किसी ने मासूमियत को नोचा है।
किसी ने बाप के गुरूर तो किसी ने मां के लाड़ को घोंटा है।
इंसानों की भीड़ में हैवानों को देखा है।
बेजान कली सी थी, अभी ही तो जन्मी थी, दुनिया से अनजान नरम सी जान को भी खरोंचा है।
घर आयी खुशहाली को अपनी हैवानियत से नोंचा है।
इंसानों की भीड़ में हैवानों को देखा है।
अरमानों की उड़ान भरने ही वाली थी, सपने पूरे करने ही वाली थी, मंज़िल तक पहुंचने वाली ही थी, अपनी नामर्दानगी से उसकी आंखो को मींचा है।
बेरहमी से उसकी चीखों को भींचा है।
इंसानों की भीड़ में हैवानों को देखा है।
वो दो घरों का सम्मान थी, किसी की जान थी तो किसी का मान थी।
अपने घिनौने नशे से एक जुबान को तोड़ा है।
अपनी गंद नज़र से एक बेबस को मरोड़ा है।
इंसानों की भीड़ में हैवानों को देखा है।
©farheen shamim
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