प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर, मह | हिंदी Poetry

"प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर, महलों में गरुड़ ना होता है, कंचन पर कभी न सोता है। रहता वह कहीं पहाड़ों में, शैलों की फटी दरारों में। उड़ते जो झंझावतों में, पीते जो वारि प्रपातो में, सारा आकाश अयन जिनका, विषधर भुजंग भोजन जिनका, वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं, धरती का हृदय जुड़ाते हैं. । ©Arpit Mishra"

 प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है।


रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में।


उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,


वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.











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©Arpit Mishra

प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर, महलों में गरुड़ ना होता है, कंचन पर कभी न सोता है। रहता वह कहीं पहाड़ों में, शैलों की फटी दरारों में। उड़ते जो झंझावतों में, पीते जो वारि प्रपातो में, सारा आकाश अयन जिनका, विषधर भुजंग भोजन जिनका, वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं, धरती का हृदय जुड़ाते हैं. । ©Arpit Mishra

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