जिज्ञासाओं के बीज,
कल्पनाओं के जल से सींचकर ही,
आकांक्षाओं के पौधे बन पाते हैं ।
झेलकर मौसमों का कहर,
कभी ओला, तो कभी तूफान, तो कभी
चिलचिलाती धूप का प्रहर,
बड़ा हुआ कितना कुछ झेलकर,
तभी तो खड़ा है आज दृढ़ता से वो आठों प्रहर ।
©Anu Verma
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