White शीर्षक - कुछ लिखूं क्या..? मेरा भी शब्द ह | हिंदी कविता

"White शीर्षक - कुछ लिखूं क्या..? मेरा भी शब्द है... कुछ लिखूं क्या घरों के गुनाह है कुछ सुनाई क्या..? रक्तों के संबंध तो नहीं है पर सहोदर है.. आंसू से लतपथ शरीर मौत के घरों में हैं कहती कि अनाथ क्यों रखना.... अपने बच्चों को भी साथ ले मरना....... पर विधाता को ये मंजूर कहां था औरों के घर में खेल ही अलग था... मारे या मारे गये, ये अतिश्योक्ती कहां था मूक-बधिर की तरह, बांधे पशुओं की तरह सहोदर को मार दिया गया रे... समाज... बताओं तुम कहां थे रे.... समाज ....??? ये आंसू कम पर नवजात के आंसू का क्या मां मां खोज रहे अबोध बालक का क्या..? चीख चीखकर कर बोलों, बताओं न रे समाज... हम तो दधिचि बन गये तुम कब बनोगे रे समाज..? मेरे भी शब्द है कुछ लिखूं क्या..... घरों के गुनाह है कुछ सुनाई क्या रे समाज....? ©Dev Rishi"

 White 
शीर्षक - कुछ लिखूं क्या..?


मेरा भी शब्द है... कुछ लिखूं क्या
घरों के गुनाह है कुछ सुनाई क्या..?
रक्तों के संबंध तो नहीं है पर सहोदर है..
आंसू से लतपथ शरीर मौत के घरों में हैं 

कहती कि अनाथ क्यों रखना.... 
अपने बच्चों को भी साथ ले मरना.......
पर विधाता को ये मंजूर कहां था 
औरों के घर में खेल ही अलग था...

मारे या मारे गये, ये अतिश्योक्ती कहां था 
मूक-बधिर की तरह, बांधे पशुओं की तरह 
सहोदर को मार दिया गया रे... समाज...
बताओं तुम कहां थे रे.... समाज ....???

ये आंसू कम पर नवजात के आंसू का क्या 
मां मां खोज रहे अबोध बालक का क्या..?
चीख चीखकर कर बोलों, बताओं न रे समाज...
हम तो दधिचि बन गये तुम कब बनोगे रे समाज..?

मेरे भी शब्द है कुछ लिखूं क्या.....
घरों के  गुनाह है  कुछ सुनाई क्या रे समाज....?

©Dev Rishi

White शीर्षक - कुछ लिखूं क्या..? मेरा भी शब्द है... कुछ लिखूं क्या घरों के गुनाह है कुछ सुनाई क्या..? रक्तों के संबंध तो नहीं है पर सहोदर है.. आंसू से लतपथ शरीर मौत के घरों में हैं कहती कि अनाथ क्यों रखना.... अपने बच्चों को भी साथ ले मरना....... पर विधाता को ये मंजूर कहां था औरों के घर में खेल ही अलग था... मारे या मारे गये, ये अतिश्योक्ती कहां था मूक-बधिर की तरह, बांधे पशुओं की तरह सहोदर को मार दिया गया रे... समाज... बताओं तुम कहां थे रे.... समाज ....??? ये आंसू कम पर नवजात के आंसू का क्या मां मां खोज रहे अबोध बालक का क्या..? चीख चीखकर कर बोलों, बताओं न रे समाज... हम तो दधिचि बन गये तुम कब बनोगे रे समाज..? मेरे भी शब्द है कुछ लिखूं क्या..... घरों के गुनाह है कुछ सुनाई क्या रे समाज....? ©Dev Rishi

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