जब रोते-बिलखते बच्चों पर कहर बरपाते जालिम
तब कहां चले गये थे इस वक्त-ए-दौरा के हाकिम
अब जब खुद पे बन आई है कहर बनके मुसीबत
दुबके हुवे बैठे मौत के डर से जो थे कभी क़ातिल
क्या सीरिया क्या फिलिस्तीन आह थी बच्चो की
दिलों से बद्दुआ निकली थी सारे ही मजलूमों की
जिन्हें नाज़ था अपनी तरक्की और बुलन्दी पर
अपने बीमारों के नहीं वो आज इलाज के काबिल
उजाड़कर कितने ही घरों को आज ख़ामोश बैठे हैं
आमीरो की जी हुजूरी में वो परदेसी वबा ला बैठे हैं
गरीबों को सर-ए-राह छोड़ दिया भूख से मरने को
परेशानी में अमीरी गरीबी में फर्क करता है बातिल
खुद-ब-खुद ही चल पड़े है अपनी मंजिलों की और
मजबूर भूखें प्यासों को खिंच रही है अपनो की डोर
हालात ने जकड़ा गरीबों को अमीरी खुश करने में
परदेशी की खातिर जनता को निगल गया काहिल
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