★★चौराहा ★★
चौराहा देखा तो आया मन में एक बिचार
तुम तो यार बना देते हो एक राह को चार
साथ-साथ जो चले वटोही यहाँ बिछड़ जाते हैं
कुछ दायें मुड़ जाते तो कुछ बायेँ मुड़ जाते हैं
इस समाज को सदा विभाजित ही करना है आता
सीधी राह चले मानव यह तुम्हें नहीं है भाता
कुछ बेचारे पथिक तुम्हें पा भ्रम में पड़ जाते हैं
किंकर्तव्यविमूढ देखते पाँव अटक जाते हैं
सही राह को चिन्हित जो नर जरा न कर पाते हैं
मंजिल उनकी कहीं और वे कहीं पहुँच जाते हैं
कितना अच्छा होता सब नर सीधे रस्ते चलते
एक दूजे की बाँह पकड़ते गिरते और सँभलते
मेरी बात सुनी,,,, चौराहा थोड़ा हँसकर बोला
तुम सरसरी निगाह डालते अन्तर नहीं टटोला
गर मेरा अस्तित्व न हो तो मंजिल नहीं मिलेगी
मानव के कुण्ठित समाज की दिशा नहीं बदलेगी
भटके राही यहाँ मिले हैं कुछ दूरी तय करके
जाने कितने जीवन बदले सुखद मोड़ लेकर के
नित्य नवीन मोड़ ही तो है जीवन की परिभाषा
परिवर्तन का बोध दे रहा दिल को बहुत दिलासा
नकारात्मक हावी तुम पर ऐसी सोच मढे़ हो
बिन सोचे समझे कुतर्क बस कितने दोष गढ़े हो
तरह तरह के पथ आकर के जहाँ एकत्रित होते
राही वहाँ नियम पालन कर स्वयं नियत्रिंत होते
सुखद दुखद परिणाम सर्वदा मानव जीवन में हैं
बटवारे में नहीं हमारा जन्म संगठन में है
सकारात्मक सोचा जिसने उसने हमें सराहा
चार राह आपस में मिलती तब बनता चौराहा
©अरुण
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