डेढ़ सयाने
कहीं सफर में आते-जाते,
अनजाने जज़्बात जगाते,
बिना बात की बात बनाते,
मिल जाते हैं डेढ़ सयाने ।
डेढ़ सयाने बतलाते हैं,
हमको क्या-क्या ज्ञात नहीं है,
क्या करने की क़ुव्वत अपनी,
और किसकी औकात नहीं है।
सब्ज़ बाग़ सपनों के सुंदर,
दिखलाते है डेढ़ सयाने।
बिना बात की बात बनाते,
मिल जाते हैं डेढ़ सयाने ।
इनने नाप रखी है पृथ्वी,
अपनी वृहद डेढ़ टंगड़ी से,
और सारा आकाश
उठा रखा है एक छोटी उंगली से।
दुविधा ग्रसित, चकित चिंतित को
और छकाते डेढ़ सयाने।
बिना बात की बात बनाते,
मिल जाते हैं डेढ़ सयाने ।
जब तुमको हर बात पता है,
फिर क्यों नहीं शिखर पर जाते?
क्यों बैठे हो मार्ग रोककर,
पथिकों के रोड़े अटकाते?
सबकी सही राह और मंज़िल,
'रूपक' रुक मत बनो सयाने।
बिना बात की बात बनाते,
मिल जाते हैं डेढ़ सयाने
रूपेश पाण्डेय 'रूपक'
(facebook: @writerrupak)
©Rupesh P
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