क्या मंजर होता होगा, क्या उस पर बीतती होगी। उजाले | हिंदी कविता

"क्या मंजर होता होगा, क्या उस पर बीतती होगी। उजाले में बैठे बैठे निगाहें अंधेरा समेटती होंगी। जगता होगा रात पर ज़ब आँखे सबकी मीचती होंगी। ज़ब चढ़ता होगा कुर्सी पर और रस्सी उसका गला बिचती होंगी। सबके सामने चेहरे पर हसीं, आत्मा अंदर ही चीखती होंगी। ©Dr Ravi Lamba"

 क्या मंजर होता होगा, क्या उस पर बीतती होगी।
उजाले में बैठे बैठे निगाहें अंधेरा समेटती होंगी।
जगता होगा रात पर ज़ब आँखे सबकी मीचती होंगी।
ज़ब चढ़ता होगा कुर्सी पर और रस्सी उसका गला बिचती होंगी।
सबके सामने चेहरे पर हसीं, आत्मा अंदर ही चीखती होंगी।

©Dr Ravi Lamba

क्या मंजर होता होगा, क्या उस पर बीतती होगी। उजाले में बैठे बैठे निगाहें अंधेरा समेटती होंगी। जगता होगा रात पर ज़ब आँखे सबकी मीचती होंगी। ज़ब चढ़ता होगा कुर्सी पर और रस्सी उसका गला बिचती होंगी। सबके सामने चेहरे पर हसीं, आत्मा अंदर ही चीखती होंगी। ©Dr Ravi Lamba

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