*मेरे पिताजी*
हिम्मत नही है,पर बहुत ज़िद करते है।
मेरे पिता जी अपने काम खुद करते है।।
धीरे धीरे चलते है छड़ी टेक कर।
गिर न जाए डर लगता है देख कर।।
नन्हे नन्हे कदमों से चलते देख
अपना बचपन याद आता है।
कितना सब्र किया होगा मुझे
चलना सीखने में जिसे दौड़ना आता है।।
थोड़ा तेज चलो अक्सर बोल ही जाता हूं।
धीरी चाल देख कर अधीर हो जाता हूं।।
खाने की थाली तो गुजरे जमाने की बात हो गई।
दूध गली एक रोटी ही उनकी खुराक हो गई।।
मां भी दौड़ दौड़ कर सेवा को आती है ।
बदले मे दो चार डांट ही खाती है।।
अब लगता है कुछ तो अलग हो गया।
जवानी छोड़ उनपर बुढ़ापा हावी हो गया।।
अब तो एक बात समझ आती है।
हम सब को उनकी जिद भी रास आती है।।
–निधीश सोलंकी
©Nidhish Solanki