निर्भया शर्मशार थे हम तब भी, हम शर्मशार आज भी हैं।
मानवता की हैवानियत पे जाने क्यूं लाचार आज भी हैं।
बेसुध से हम सोएं पड़े हैं, सुध कहां ले पाए हम कभी,
बेटियों पर नृशंसता से होते जघन्य बलात्कार आज भी हैं।
शर्मसार थे तब भी.........
बुलबुल सी चेहकती थी वो, कब उसने यह सोचा होगा।
दर्द भी रोया होगा, जब उन गिद्धों ने उसको नोचा होगा।
उसकी चीखें दब के रह गई उन अमानुषो के हाथो में,
निर्वस्त्र, बेजान बच्ची ने, कैसे अंतहीन दुख भोगा होगा।
कहां बदल पाए घर्णीत समाज के गिरते विचारों को,
बेटियों के खून से लथपथ लिखा समाचार आज भी है।
शर्मशार थे तब भी..........
पूछती है बेटी, कौरव खड़े है, केशव भी तो दिखलाओ,
भीम भी बने कोई और उनकी जांघे जरा उखाड़ लाओ।
परस्त्री के हरण पे, पूरी लंका ढहाने वाले राम कहां है,
पुरखो से मिली न्यायव्यस्था, सोई क्युं है उसे जगाओ।
बाबा इससे तो अच्छा था भूर्ण में ही हत्या कर देते,
तुम्हारे इस अन्नेतिक दुनिया में व्यभिचार आज भी है।
शर्मसार थे तब भी............
देवी जैसे पूजते हो तो बताओ, मेरा वो सम्मान कहां है।
बाबा सबसे पूछो ना, तुम्हारी वो नन्ही सी जान कहां है।
केहदो इनको बेटियों के कभी अभिशाप नहीं लेते,
कैसे जन्म लूं फिर से, सुरक्षित वो मेरा हिंदुस्तान कहां है।
निरुत्तर सा बाप खड़ा असहाय समाज को कोस रहा,
हम गुनहगार तेरे कल भी थे, हम गुनहगार आज भी है।
शर्मसार थे तब भी...........
चरमराती सुरक्षा व्यवस्था, कानून की हालत लचर रही।
सियासत बदली, पर यह दोनों मठाधीश के नए घर रही।
बचाने अस्पताल भी दौड़े, पर वहां भी परछाई इनकी थी,
गुड़िया हाथों में तड़पी थी, वहां खाली मगर बिस्तर रही।
तेरे कुछ अधिकार नहीं है, तू परियों के देश में बस जा,
दरिंदों के लिए कल भी थे और मानवाधिकार आज भी हैं।
शर्मशार थे तब भी............
- नवीन गोदियाल
©naveen godiyal
#Stoprape