White बड़ा अजीब रोग मुफ़लिसी, रूह कँपाने वाला है | हिंदी कविता

"White बड़ा अजीब रोग मुफ़लिसी, रूह कँपाने वाला है दर्द हमेशा बढ़ता है , कितना तड़पाने वाला है? लोग इबादत में डूबे हैं साथ अक़ीदत ले करके, मेरे मन में वही बसा है,रोटी का जो निवाला है। बात न अच्छी कर पाता, न मशविरे के काबिल हूँ, जी-हुजूरी करता रहता फिर भी बनता जाहिल हूँ। कितनी हनक अमीरी की है जूते झट से उठते हैं, रोटी तेरी आड़ में मैं , इन सबको करता साहिल हूँ। इन सबका बस सार यही है, रात न सोने वाली है। बातें सुनो कभी मालिक की ,कभी सुनो घरवाली है। खुशियों का त्यौहार सभी का, दर्द छिपाता फिरता हूँ, कौन याद रखेगा ये,उस ग़रीब की भी दिवाली है।। ©Shubham Mishra"

 White  बड़ा अजीब रोग मुफ़लिसी, रूह कँपाने वाला है
दर्द हमेशा बढ़ता है , कितना तड़पाने वाला है?
लोग इबादत में डूबे हैं साथ अक़ीदत ले करके,
मेरे मन में वही बसा है,रोटी का जो निवाला है।

बात न अच्छी कर पाता, न मशविरे के काबिल हूँ,
जी-हुजूरी करता रहता फिर भी बनता जाहिल हूँ।
कितनी हनक अमीरी की है जूते झट से उठते हैं,
रोटी तेरी आड़ में मैं , इन सबको करता साहिल हूँ।

इन सबका बस सार यही है, रात न सोने वाली है।
बातें सुनो कभी मालिक की ,कभी सुनो घरवाली है।
खुशियों का त्यौहार सभी का, दर्द छिपाता फिरता हूँ,
 कौन याद रखेगा ये,उस ग़रीब की भी दिवाली है।।

©Shubham Mishra

White बड़ा अजीब रोग मुफ़लिसी, रूह कँपाने वाला है दर्द हमेशा बढ़ता है , कितना तड़पाने वाला है? लोग इबादत में डूबे हैं साथ अक़ीदत ले करके, मेरे मन में वही बसा है,रोटी का जो निवाला है। बात न अच्छी कर पाता, न मशविरे के काबिल हूँ, जी-हुजूरी करता रहता फिर भी बनता जाहिल हूँ। कितनी हनक अमीरी की है जूते झट से उठते हैं, रोटी तेरी आड़ में मैं , इन सबको करता साहिल हूँ। इन सबका बस सार यही है, रात न सोने वाली है। बातें सुनो कभी मालिक की ,कभी सुनो घरवाली है। खुशियों का त्यौहार सभी का, दर्द छिपाता फिरता हूँ, कौन याद रखेगा ये,उस ग़रीब की भी दिवाली है।। ©Shubham Mishra

#sad_quotes ग़रीब की दिवाली

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