थे बुलंद हौसले , मंजिल मगर पाया नहीं गया
सब कुछ चला गया , फ़क्र का साया नहीं गया
सोचे थे हैं घर के केवट सब पार लगाएंगे
एक छोटी सी कश्ती भी मगर बनाया नहीं गया !
एक एक करके सारे हाथ छूटते गए
जिंदादिली का ऐब मुझसे हारा नहीं गया !
फिर एक दिन हार के खुद को मारने लगे
घर का चिराग़ बुझते देख.. मारा नहीं गया ,
हे राम..! रोक लीजिए मैं हूं यहीं अभी
संघर्ष की चाह जब तलक सारा नहीं गया ।।
आnand
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©Anand
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