क्या प्रकृति रूठती जा रही हैं? शायद! प्रकृति र

"क्या प्रकृति रूठती जा रही हैं? शायद! प्रकृति रूठती जा रही हैं जीवन की एक डोर हैं जो हाथों से छूटती जा रही हैं हो कोरोना का काल, ओक्सीजन से हार, या यास सा तूफ़ां.. हाथ आगे फैलाये किसके बचाने वाला एक ही है वो भगवान। प्रकृति से मनुष्य ने की है बहुत छेड़- छाड़ हाँ! ये हमारे ही कर्मो का फल है श्रीमान्। हो पेड़ों की कटाई या जानवरो पर अत्याचार.. अरे!! और भी बहुत -सुंदर उदाहरण है हमारे और आपके पास.. जिस प्रकृति की गोद में पल रहे थे.. नही कर पाए समय रहते उसी का सम्मान.. तो अब भुगतना ही होगा परिणाम। मेरे मन में गूंजते है यही सवाल.. क्या कभी संभल पायेगा इंसान कैसे संभाल पायेगा माँ प्रकृति के इस प्रकोप को? जीवन की इस डोर को।...जो टूटती जा रही है क्या सच में प्रकृति रूठती जा रही हैं??... ©Akanksha Khandelwal"

 क्या प्रकृति रूठती जा रही हैं? 


 शायद! प्रकृति रूठती जा रही हैं 
जीवन की एक डोर हैं जो हाथों से छूटती जा रही हैं
हो कोरोना का काल, ओक्सीजन से हार, या यास सा तूफ़ां.. 
हाथ आगे फैलाये किसके बचाने वाला एक ही है वो भगवान। 
प्रकृति से मनुष्य ने की है बहुत छेड़- छाड़ 
हाँ! ये हमारे ही कर्मो का फल है श्रीमान्।
हो पेड़ों की कटाई या जानवरो पर अत्याचार..
अरे!! और भी बहुत -सुंदर उदाहरण है हमारे और आपके पास.. 
जिस प्रकृति की गोद में पल रहे थे.. नही कर पाए समय रहते  उसी का सम्मान.. 
तो अब भुगतना ही होगा परिणाम।
मेरे मन में गूंजते  है यही सवाल.. 
क्या कभी संभल पायेगा इंसान 
कैसे संभाल पायेगा माँ प्रकृति के इस प्रकोप को? जीवन की इस डोर को।...जो टूटती जा रही है 
क्या  सच में प्रकृति रूठती जा रही हैं??...

©Akanksha Khandelwal

क्या प्रकृति रूठती जा रही हैं? शायद! प्रकृति रूठती जा रही हैं जीवन की एक डोर हैं जो हाथों से छूटती जा रही हैं हो कोरोना का काल, ओक्सीजन से हार, या यास सा तूफ़ां.. हाथ आगे फैलाये किसके बचाने वाला एक ही है वो भगवान। प्रकृति से मनुष्य ने की है बहुत छेड़- छाड़ हाँ! ये हमारे ही कर्मो का फल है श्रीमान्। हो पेड़ों की कटाई या जानवरो पर अत्याचार.. अरे!! और भी बहुत -सुंदर उदाहरण है हमारे और आपके पास.. जिस प्रकृति की गोद में पल रहे थे.. नही कर पाए समय रहते उसी का सम्मान.. तो अब भुगतना ही होगा परिणाम। मेरे मन में गूंजते है यही सवाल.. क्या कभी संभल पायेगा इंसान कैसे संभाल पायेगा माँ प्रकृति के इस प्रकोप को? जीवन की इस डोर को।...जो टूटती जा रही है क्या सच में प्रकृति रूठती जा रही हैं??... ©Akanksha Khandelwal

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