मैं ये.. तू वो। किसी घाट से सटी एक बहती धारा, जय | हिंदी Poetry

"मैं ये.. तू वो। किसी घाट से सटी एक बहती धारा, जय गँगा जय जमना का उन्नत नारा कूद पड़े जिसमें साधो शतक "मैं तुझसे बड़ा साधव", क्या तू मुझसे बड़ा भगत? मन में तो दौड़े बस यही कलह तू नही समान मेरे साधक, मैं तो तुझसे बिल्कुल पृथक तेरा व्रत बस सोमवार तक सीमित, मैं चौदह बरस बिन अन्न के जीवित तेरी जटाऐ मात्र गर्दन को चूमे, मेरी मेरुदंड पर पहुँच लटक उसने तो महज राख़ मली देह पर, मैं बन अघोर गया माँस गटक उसका रूद्र मनका पंच मुखी प्रतीत, मैं तो एकमुखी का मालिक हूँ मेरी अवस्था तो वृद्ध ब्रम्ह सी, मेरे समक्ष तो एक नाबालिक तू यही स्तिथि सम्मलेन की, जहाँ कवि लिए बैठे हैं तरकश साधे बाण अहंकार भरे, वाह वाही में दाबे भावनाएं करकश अध्यात्म गुरु का तो हाल ना पूछो, जैसे नश्वर देह में घोषित ईश्वर कोई शिव कार्यालय का वक्ता, कोई कृष्ण की लीलाओं का तस्कर बस जुटे बढ़ाने कोष चेलों का, फिर प्रतिदिन थाल सजाते हैं फिर दूषित देह में बनकर ईश्वर, अनुयायी को खा जाते हैं अचेतन में लिए अहंकार कुम्भ ये, मृत्यु के निकट जब आते हैं दे नाम समाधी मृत्यु को फिर, अहंकार को उपलब्ध हो जाते हैं ©Naz Rat"

 मैं ये.. तू वो।

किसी घाट से सटी एक बहती धारा, जय गँगा जय जमना का उन्नत नारा 
कूद पड़े जिसमें साधो शतक
"मैं तुझसे बड़ा साधव", क्या तू मुझसे बड़ा भगत?
मन में तो दौड़े बस यही कलह
तू नही समान मेरे साधक, मैं तो तुझसे बिल्कुल पृथक
तेरा व्रत बस सोमवार तक सीमित, मैं चौदह बरस बिन अन्न के जीवित
तेरी जटाऐ मात्र गर्दन को चूमे, मेरी मेरुदंड पर पहुँच लटक
उसने तो महज राख़ मली देह पर, मैं बन अघोर गया माँस गटक
उसका रूद्र मनका पंच मुखी प्रतीत, मैं तो एकमुखी का मालिक हूँ
मेरी अवस्था तो वृद्ध ब्रम्ह सी, मेरे समक्ष तो एक नाबालिक तू
यही स्तिथि सम्मलेन की, जहाँ कवि लिए बैठे हैं तरकश
साधे बाण अहंकार भरे, वाह वाही में दाबे भावनाएं करकश
अध्यात्म गुरु का तो हाल ना पूछो, जैसे नश्वर देह में घोषित ईश्वर
कोई शिव कार्यालय का वक्ता, कोई कृष्ण की लीलाओं का तस्कर
बस जुटे बढ़ाने कोष चेलों का, फिर प्रतिदिन थाल सजाते हैं
फिर दूषित देह में बनकर ईश्वर, अनुयायी को खा जाते हैं
अचेतन में लिए अहंकार कुम्भ ये, मृत्यु के निकट जब आते हैं 
दे नाम समाधी मृत्यु को फिर, अहंकार को उपलब्ध हो जाते हैं

©Naz Rat

मैं ये.. तू वो। किसी घाट से सटी एक बहती धारा, जय गँगा जय जमना का उन्नत नारा कूद पड़े जिसमें साधो शतक "मैं तुझसे बड़ा साधव", क्या तू मुझसे बड़ा भगत? मन में तो दौड़े बस यही कलह तू नही समान मेरे साधक, मैं तो तुझसे बिल्कुल पृथक तेरा व्रत बस सोमवार तक सीमित, मैं चौदह बरस बिन अन्न के जीवित तेरी जटाऐ मात्र गर्दन को चूमे, मेरी मेरुदंड पर पहुँच लटक उसने तो महज राख़ मली देह पर, मैं बन अघोर गया माँस गटक उसका रूद्र मनका पंच मुखी प्रतीत, मैं तो एकमुखी का मालिक हूँ मेरी अवस्था तो वृद्ध ब्रम्ह सी, मेरे समक्ष तो एक नाबालिक तू यही स्तिथि सम्मलेन की, जहाँ कवि लिए बैठे हैं तरकश साधे बाण अहंकार भरे, वाह वाही में दाबे भावनाएं करकश अध्यात्म गुरु का तो हाल ना पूछो, जैसे नश्वर देह में घोषित ईश्वर कोई शिव कार्यालय का वक्ता, कोई कृष्ण की लीलाओं का तस्कर बस जुटे बढ़ाने कोष चेलों का, फिर प्रतिदिन थाल सजाते हैं फिर दूषित देह में बनकर ईश्वर, अनुयायी को खा जाते हैं अचेतन में लिए अहंकार कुम्भ ये, मृत्यु के निकट जब आते हैं दे नाम समाधी मृत्यु को फिर, अहंकार को उपलब्ध हो जाते हैं ©Naz Rat

#Chalachal

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