ये सांसे डूबती तो हैं,उखड़ क्यों नहीं जाती
यादें धुंधला जो गई है,बिछड़ क्यों नहीं जाती
मैं,उकता तो जाती हु,मासूमियत से अपनी
ज़माने की तरह फ़रेब में,ढल क्यों नहीं जाती
नहीं जाती किसी और चेहरे पे नज़र मेरी
मैं,भी उस की तरह ,बदल क्यों नहीं जाती
मैं बहुत घबरा गई हु, अब अपना अंज़ाम सोच कर
नहीं समझ पाती,इधर जाती के उधर जाती
आलम ये है के,दिल चीखना चाहता है
उस पर
मोहब्बत इतनी के खुद से हु मायूस
मैं,बोलती रहती हूं बहुत
खामोशियों में ढल क्यों नहीं जाती
अब एक चेहरा,एक क़िरदार कहा होता है
किसी का, बेबाक
ये क्या अजब शय हु, मैं ,बदल क्यों नहीं जाती
चलो रस्मन ही सही,कभी हाल पूछ लो मेरा
मैं नहीं चाहती कोई इज़ाफ़ा करूं
मुश्किल में तुम्हारी,तुम को न हो गवारा
चलो उधर नहीं जाती,मुझ पे हक़ जता सकते हो तुम
जो भी है,मुझ को बता सकते हो तुम
तुम मुझे ज़िंदगी से ज़्यादा अज़ीज़ हो
वरना
उसूल हैं,मेरी खुद्दारी के कुछ
यू इस तरह मै,हर किसी के,दर पे नहीं जाती
मैं फारिग शख़्स नहीं हु ,सौ उलझने हैं,हिस्से में मेरे
ज़िंदगी तू मुझे आसानियां तो मत देना
मैं, समझौते नहीं कर सकती
ये बात इतनी अजीब है
के,किसी की समझ नहीं आती....
©ashita pandey बेबाक़
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