ख़ास पल
मेरा शहर
कुछ ख़ास नहीं है शहर मेरा बाकी शहरों के ही जैसा है। बिल्कुल वो बचपन के दोस्तों की दोस्ती के ही जैसा है।।
वो गली में चिल्लाना वो ढलते ही शाम पत्थरो से चिंगारियां निकालना, बिल्कुल वो वैसा है।
वो बचपन के खेल - खेल में दीवारों पे खेचे कुछ लकीरों के ही जैसा है।।
वो कटी पतंगों को लूटने वो टूटी चूड़ीओ को डिब्बे में सहेजने के वैसा है।
वो गली, चौफालों के चक्कर काटने और अपनी जीत पे बजी तालियों पे इतराने के जैसा है।।
कुछ ख़ास नहीं है शहर मेरा बाकी शहरों के ही जैसा है।।।...
वो फतिंगो को पकड़ना, पकड़ धागों से बांधना सायद वो वैसा है।
या गुड़ियों के खेल में उनके मारने पे दिए भोज के ही जैसा है।।
शायद वो बचपन के मेले में खरीदे उन खिलौनों के जैसा है।
या बारिश के पानी में बहाई काग़ज़ के नाव के जैसा है।।
कुछ ख़ास नहीं है शहर मेरा बाकी शहरों के ही जैसा है।।
writen by
Rohit Rai
#ख़ास पल