ये दुनिया कितनी सहमी सी है
डरी डरी सी है बदहवास सी है
चाँद तारों की बातें करती थी
आज धरती पर मजबूर सी है...
सूने से मयकदे हैं सूनी सी महफ़िलें हैं
वीरान से खड़े इबादतखाने हैं
मंज़र ये बड़ा क़ातिल सा है
साँसों पे पहरे और कड़े से हैं...
तेरे जुल्मों सितम का कोई अंत नही है
तेरे आतंक की फेरहिस्त लंबी सी है
गेहूँ के साथ घुन भी पिस रहा है
बचपन कैद है जवानी मजबूर सी है ...
नादान इंसान ये तूने क्या कर डाला
ज़मीन घायल है ख़ून की नदी जमी सी है
प्रकृति का सम्मान करो सनातनी हो जाओ
इंसानियत की ये इल्तिज़ा सी है...
©गुमनाम शायर
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