"एक नारी छोड़कर माँ-बाबुल का घर-बार,
सींचती है नयन-जल से अपने पी का आंगन,
फूल पी के प्यार का खिला पाकर,
महकने लगता है उसके मन का उपवन,
पतझड़ सावन बसंत बहार,
आते हैं उतार-चढ़ाव के न जाने कितने मौसम,
तन मन अपना समर्पण करकर,
चमका लेती वह अपने जीवन का दर्पण।।"