***विश्वास नहीं तेरे प्रेम पर***
विश्वास नहीं है मुझे तुम्हारे प्रेम पर ,
ना ही है कोई आस्था,
कोई डर नहीं खोने का,
ना ही उसके लिए है कोई स्पर्द्धा।
आखिर जो सामने हो
उस पर आस्था और विश्वास से क्या प्रयोजन,
महसूस करता हूँ तुम्हें हर क्षण प्रतिपल,
हर जगह, अभिभूत हूं तुमसे ही।
इतना परिपूर्ण घट हूँ इस अमृत से,
ये छलक पड़ता है,
हर गली, हर डगर, जहाँ भी जाऊँ,
फैल जाती है सुरभि हर कोने में।
कोई प्रयोजन नहीं आस्था विश्वास या डर का,
हर पल सराबोर तेरे प्रेम रस से,
अब मैं हूँ ही नहीं, तो फिर
क्या खोना और क्या पाना।
-मुकेश आनंद।
©मुकेश आनंद
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