अनुभव करता हूँ "मैं" प्रतिदिन हर क्षण, हर सूक्ष्म छिन, हर बेला
अपने चित्त में उमड़ता एक विशाल "मैं" का मेला
मेरा, मुझसे, मैंने, मुझको, बस "मैं" ही "मैं" की गर्जन व्यापक
इस "मैं-मैं" की भगदड़ में कुचला, मेरे मन का उत्सुक साधक
वेद भी "मैंने" सारे पढ़ डाले, केदार, कैलाश "मैंने" चढ़ डाले
चट कर डाले अध्यात्म के सब व्यंजन
पर पचा ना पाया रहस्य गूढ़ एक
जिसे ढूंढे "मैं" यह भौतिक में
वह तो "अलख निरंजन" "अलख निरंजन"।
जब भेंट हुई कभी भय से जीवन की तब "मैं" यह "मुझसे" हुआ पृथक
अहंकार हुआ लुप्त क्षण भर को, संवेदनशील जैसे बालक चंचल
ध्यान के तंत्र जाने शतक, ज्ञान सम्बन्धी सैंकड़ो घटक
पर "मैं" रहा ज्यों का त्यों
लिए अहंकार अवचेतन में फिर "मैं" कभी कहीं भटक, कभी किधर लटक
"मैं" संग तो हर योग विफल, "मैं" संग ना कोई ज्ञान सकल
"मैं" संग तो सार्थक ना प्रेम, "मैं" संग ना सम्भोग सफल
तीरथ का एक अंतिम प्रावधान था
पर ईश दरस में भी "मैं" प्रधान था
"मैं" संग ना संभव प्रार्थना, "मैं" संग तो तीरथ भी यातना
©Naz Rat
#alone