बड़ी जोर उठी थी उम्मीदें और दरवाजे से लौट गई उम्मीदें
हमीं ने सुकून खोया रातों को हमीं ने गिनी नहीं घड़ियां
एक आग लगायी थी बस्ती ने चरागों को रोशनी के बास्ते
अजब आग में जली है बस्ती की बेचारी ये दुनियाँ
किस ख़्वाब से कोई देखे ख़्वाब कि ख़्वाब को जगह ही नहीं
और ख़्वाब पर ख़्वाब दिखाती है दुनियाँ
हमें यकी हो रहा है धीरे- धीरे कहीं डूब न जाए ये दुनियाँ
भूखे पेट न लगाए जाते है नारें न बजायी जाती है तालियाँ
पेपर लीक पर दे रहे है बड़ी- बड़ी दलीलें लोग
चारों तरफ से उठायी जा रही है अनेकों बोलियां
©ABHISHEK YADAV
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