पंडित सत्य की खोज में निकले तो देर लगनी स्वाभाविक

"पंडित सत्य की खोज में निकले तो देर लगनी स्वाभाविक है। अक्सर तो पंडित निकलता नहीं सत्य की खोज में। क्योंकि पंडित को यह भ्रांति होती है कि मुझे तो मालूम ही है, खोज क्या करनी है? वे थोड़े—से पंडित सत्य की खोज में निकलते हैं जो ईमानदार हैं; जो जानते हैं कि जो मैं जानता हूं वह सब उधार है। और जो मुझे जानना है, अभी मैंने जाना नहीं। ही, उपनिषद मुझे याद हैं लेकिन वे मेरे उपनिषद् नहीं हैं; वे मेरे भीतर उमगे नहीं हैं। जैसे किसी मां ने किसी दूसरे के बेटे को गोद ले लिया हो ऐसे ही तुम शब्दों को, सिद्धांतों को गोद ले सकते हो, मगर अपने गर्भ में बेटे को जन्म देना, अपने गर्भ में बड़ा करना, नौ महीने तक अपने जीवन में उसे ढालना बात और है। गोद लिए बच्चे बात और हैं। लाख मान लो कि अपने हैं, अपने नहीं हैं। समझा लो कि अपने हैं; मगर किसी तल पर, किसी गहराई में तो तुम जानते ही रहोगे कि अपने नहीं हैं। उसे भुलाया नहीं जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता। उपनिषद कंठस्थ हो सकते हैं—मगर गोद लिया तुमने ज्ञान; तुम्हारे गर्भ में पका नहीं। तुम उसे जन्म देने की प्रसव—पीड़ा से नहीं गुजरे। तुमने कीमत नहीं चुकाई। और बिना कीमत जो मिल जाए, दो कौड़ी का है। जितनी कीमत चुकाओगे उतना ही मूल्य होता है। पंडित एक तो सत्य की खोज में जाता नहीं और जाए तो सबसे बड़ी अड़चन यही होती है कि ज्ञान से कैसे छुटकारा हो—तथाकथित ज्ञान से कैसे छुटकारा हो? अज्ञान से छूटना इतना कठिन नहीं है क्योंकि अज्ञान निर्दोष है। सभी बच्चे अज्ञानी हैं। लेकिन बच्चों की निर्दोषता देखते हो! सरलता देखते हो, सहजता देखते हो। अज्ञानी और ज्ञान के बीच ज्यादा फासला नहीं है। क्योंकि अज्ञानी के पास कुछ बातें हैं जो ज्ञान को पाने की अनिवार्य शर्ते हैं : जैसे सरलता है, जैसे निर्दोषता है, जैसे सीखने की क्षमता है, झुकने का भाव है, समर्पण की प्रक्रिया है। अज्ञानी की सबसे बड़ी संपदा यही है कि उसे अभी जानने की भ्रांति नहीं है। उसे साफ है, स्पष्ट है कि मुझे पता नहीं है। जिसको यह पता है कि मुझे पता नहीं है, वह तलाश में निकल सकता है। या कोई अगर जला हुआ दीया मिल जाए तो वह उसके पास बैठ सकता है। सत्संग की सुविधा है। इसलिए तो जीसस ने कहा : 'धन्य हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। 'पंडित की बड़ी से बड़ी कठिनाई यही है कि बिना जाने उसे पता चलता है कि मैं जानता हूं। न ही उसे एक भी उत्तर मिला है जीवन से, लेकिन किताबों ने सब उत्तर दे दिए हैं उधार, बासे, पिटे—पिटाए, परंपरा से। महावीर को बारह वर्ष लगे मौन साधने में! कोई जैनशास्त्र यह नहीं कहता कि बारह वर्ष लगने का अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ यही होता है कि मन में खूब धूम रही होगी विचारों की। होना स्वाभाविक भी है। राजपुत्र थे, सुशिक्षित थे, बड़े—बड़े पंडितों के पास बैठकर सब सीखा होगा, जो सीखा जा सकता था। सब कलाओं में पारंगत थे। वही पारंगतता, वही कुशलता, वही ज्ञान बन गई चट्टान। उसी को तोड्ने में बारह वर्ष सतत श्रम करना पड़ा, तब कहीं मौन हुए; तब कहीं चुप्पी आयी; तब कहीं फिर से अज्ञानी हुए। झूठे ज्ञान से छुटकारा हुआ। कागज फिर कोरा हुआ। और जब कागज कोरा हो तो परमात्मा कुछ लिखे। और जब अपना उपद्रव शांत हो, अपनी भीड़— भाड़ छटे, अपना शोरगुल बंद हो तो परमात्मा की वाणी सुनाई पड़े, उपनिषद् का जन्म हो, ऋचाएं गंजे तुम्हारे हृदय से। तुम्हारी श्वासें सुवासित हों ऋचाओं से। तुम जो बोलो सो शास्त्र हो जाए। तुम उठो—बैठो, तुम आख खोलो, आख बंद करो और शास्त्र झरें। तुम्हारे चारों तरफ वेद की हवाएं उठें। कुरान का संगीत पैदा होता है तभी, जब तुम्हारे भीतर शून्य गहन होता है। जैसे बादल जब भर जाते हैं वर्षा के जल से तो बरसते हैं। और जब आत्मा शून्य के जल से भर जाती है तो बरसती है। मुहम्मद, कबीर, जगजीवन ये बे—पढे लिखे लोग हैं। ये निपट गंवार हैं, ग्रामीण हैं। सभ्यता का, शिक्षा का, संस्कार का, इन्हें कुछ पता नहीं है। बड़ी सरलता से इनके जीवन में क्रांति घटी है। इन्हें बारह बारह वर्ष महावीर की भांति, या बुद्ध की भांति मौन को साधना नहीं पड़ा है। इनके भीतर कूड़ा—करकट ही न था। विद्यापीठ ही नहीं गए थे। विश्वविद्यालयों में कचरा इन पर डाला नहीं गया था। ये कोरे ही थे। संसार में तो मूढ़ समझे जाते। लेकिन ध्यान रखना, संसार का और परमात्मा का गणित विपरीत है। जो संसार में मूढ़ है उसकी वहां बड़ी कद्र है। फिर जीसस को दोहराता हूं। जीसस ने कहा है : 'जो यहां प्रथम हैं वहां अंतिम, और जो यहां अंतिम हैं वहां प्रथम हैं। यहां जिनको तुम मूढ़ समझ लेते हो... और मूढ़ हैं; क्योंकि धन कमाने में हार जाएंगे, पद की दौड़ में हार जाएंगे। न चालबाज हैं न चतुर हैं। कोई भी धोखा दे देगा। कहीं भी धोखा खा जाएंगे। खुद धोखा दे सकें, तो सवाल ही नहीं; अपने को धोखे से बचा भी न सकेंगे। इस जगत् में तो उनकी दशा दुर्दशा की होगी। लेकिन यही हैं वे लोग जो परमात्मा के करीब पहुंच जाते हैं—सरलता से पहुंच जाते हैं।"

 पंडित सत्य की खोज में निकले तो देर लगनी स्वाभाविक है। अक्सर तो पंडित निकलता नहीं सत्य की खोज में। क्योंकि पंडित को यह भ्रांति होती है कि मुझे तो मालूम ही है, खोज क्या करनी है? वे थोड़े—से पंडित सत्य की खोज में निकलते हैं जो ईमानदार हैं; जो जानते हैं कि जो मैं जानता हूं वह सब उधार है। और जो मुझे जानना है, अभी मैंने जाना नहीं। ही, उपनिषद मुझे याद हैं लेकिन वे मेरे उपनिषद् नहीं हैं; वे मेरे भीतर उमगे नहीं हैं।
जैसे किसी मां ने किसी दूसरे के बेटे को गोद ले लिया हो ऐसे ही तुम शब्दों को, सिद्धांतों को गोद ले सकते हो, मगर अपने गर्भ में बेटे को जन्म देना, अपने गर्भ में बड़ा करना, नौ महीने तक अपने जीवन में उसे ढालना बात और है। गोद लिए बच्चे बात और हैं। लाख मान लो कि अपने हैं, अपने नहीं हैं। समझा लो कि अपने हैं; मगर किसी तल पर, किसी गहराई में तो तुम जानते ही रहोगे कि अपने नहीं हैं। उसे भुलाया नहीं जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता।
उपनिषद कंठस्थ हो सकते हैं—मगर गोद लिया तुमने ज्ञान; तुम्हारे गर्भ में पका नहीं। तुम उसे जन्म देने की प्रसव—पीड़ा से नहीं गुजरे। तुमने कीमत नहीं चुकाई। और बिना कीमत जो मिल जाए, दो कौड़ी का है। जितनी कीमत चुकाओगे उतना ही मूल्य होता है।
पंडित एक तो सत्य की खोज में जाता नहीं और जाए तो सबसे बड़ी अड़चन यही होती है कि ज्ञान से कैसे छुटकारा हो—तथाकथित ज्ञान से कैसे छुटकारा हो? अज्ञान से छूटना इतना कठिन नहीं है क्योंकि अज्ञान निर्दोष है। सभी बच्चे अज्ञानी हैं। लेकिन बच्चों की निर्दोषता देखते हो! सरलता देखते हो, सहजता देखते हो।
अज्ञानी और ज्ञान के बीच ज्यादा फासला नहीं है। क्योंकि अज्ञानी के पास कुछ बातें हैं जो ज्ञान को पाने की अनिवार्य शर्ते हैं : जैसे सरलता है, जैसे निर्दोषता है, जैसे सीखने की क्षमता है, झुकने का भाव है, समर्पण की प्रक्रिया है। अज्ञानी की सबसे बड़ी संपदा यही है कि उसे अभी जानने की भ्रांति नहीं है। उसे साफ है, स्पष्ट है कि मुझे पता नहीं है। जिसको यह पता है कि मुझे पता नहीं है, वह तलाश में निकल सकता है। या कोई अगर जला हुआ दीया मिल जाए तो वह उसके पास बैठ सकता है। सत्संग की सुविधा है।
इसलिए तो जीसस ने कहा : 'धन्य हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। 'पंडित की बड़ी से बड़ी कठिनाई यही है कि बिना जाने उसे पता चलता है कि मैं जानता हूं। न ही उसे एक भी उत्तर मिला है जीवन से, लेकिन किताबों ने सब उत्तर दे दिए हैं उधार, बासे, पिटे—पिटाए, परंपरा से।
महावीर को बारह वर्ष लगे मौन साधने में! कोई जैनशास्त्र यह नहीं कहता कि बारह वर्ष लगने का अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ यही होता है कि मन में खूब धूम रही होगी विचारों की। होना स्वाभाविक भी है। राजपुत्र थे, सुशिक्षित थे, बड़े—बड़े पंडितों के पास बैठकर सब सीखा होगा, जो सीखा जा सकता था। सब कलाओं में पारंगत थे। वही पारंगतता, वही कुशलता, वही ज्ञान बन गई चट्टान। उसी को तोड्ने में बारह वर्ष सतत श्रम करना पड़ा, तब कहीं मौन हुए; तब कहीं चुप्पी आयी; तब कहीं फिर से अज्ञानी हुए। झूठे ज्ञान से छुटकारा हुआ। कागज फिर कोरा हुआ।
और जब कागज कोरा हो तो परमात्मा कुछ लिखे। और जब अपना उपद्रव शांत हो, अपनी भीड़— भाड़ छटे, अपना शोरगुल बंद हो तो परमात्मा की वाणी सुनाई पड़े, उपनिषद् का जन्म हो, ऋचाएं गंजे तुम्हारे हृदय से। तुम्हारी श्वासें सुवासित हों ऋचाओं से। तुम जो बोलो सो शास्त्र हो जाए। तुम उठो—बैठो, तुम आख खोलो, आख बंद करो और शास्त्र झरें। तुम्हारे चारों तरफ वेद की हवाएं उठें।
कुरान का संगीत पैदा होता है तभी, जब तुम्हारे भीतर शून्य गहन होता है। जैसे बादल जब भर जाते हैं वर्षा के जल से तो बरसते हैं। और जब आत्मा शून्य के जल से भर जाती है तो बरसती है।
मुहम्मद, कबीर, जगजीवन ये बे—पढे लिखे लोग हैं। ये निपट गंवार हैं, ग्रामीण हैं। सभ्यता का, शिक्षा का, संस्कार का, इन्हें कुछ पता नहीं है। बड़ी सरलता से इनके जीवन में क्रांति घटी है। इन्हें बारह बारह वर्ष महावीर की भांति, या बुद्ध की भांति मौन को साधना नहीं पड़ा है। इनके भीतर कूड़ा—करकट ही न था। विद्यापीठ ही नहीं गए थे। विश्वविद्यालयों में कचरा इन पर डाला नहीं गया था। ये कोरे ही थे। संसार में तो मूढ़ समझे जाते।
लेकिन ध्यान रखना, संसार का और परमात्मा का गणित विपरीत है। जो संसार में मूढ़ है उसकी वहां बड़ी कद्र है। फिर जीसस को दोहराता हूं। जीसस ने कहा है : 'जो यहां प्रथम हैं वहां अंतिम, और जो यहां अंतिम हैं वहां प्रथम हैं।
यहां जिनको तुम मूढ़ समझ लेते हो... और मूढ़ हैं; क्योंकि धन कमाने में हार जाएंगे, पद की दौड़ में हार जाएंगे। न चालबाज हैं न चतुर हैं। कोई भी धोखा दे देगा। कहीं भी धोखा खा जाएंगे। खुद धोखा दे सकें, तो सवाल ही नहीं; अपने को धोखे से बचा भी न सकेंगे। इस जगत् में तो उनकी दशा दुर्दशा की होगी। लेकिन यही हैं वे लोग जो परमात्मा के करीब पहुंच जाते हैं—सरलता से पहुंच जाते हैं।

पंडित सत्य की खोज में निकले तो देर लगनी स्वाभाविक है। अक्सर तो पंडित निकलता नहीं सत्य की खोज में। क्योंकि पंडित को यह भ्रांति होती है कि मुझे तो मालूम ही है, खोज क्या करनी है? वे थोड़े—से पंडित सत्य की खोज में निकलते हैं जो ईमानदार हैं; जो जानते हैं कि जो मैं जानता हूं वह सब उधार है। और जो मुझे जानना है, अभी मैंने जाना नहीं। ही, उपनिषद मुझे याद हैं लेकिन वे मेरे उपनिषद् नहीं हैं; वे मेरे भीतर उमगे नहीं हैं। जैसे किसी मां ने किसी दूसरे के बेटे को गोद ले लिया हो ऐसे ही तुम शब्दों को, सिद्धांतों को गोद ले सकते हो, मगर अपने गर्भ में बेटे को जन्म देना, अपने गर्भ में बड़ा करना, नौ महीने तक अपने जीवन में उसे ढालना बात और है। गोद लिए बच्चे बात और हैं। लाख मान लो कि अपने हैं, अपने नहीं हैं। समझा लो कि अपने हैं; मगर किसी तल पर, किसी गहराई में तो तुम जानते ही रहोगे कि अपने नहीं हैं। उसे भुलाया नहीं जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता। उपनिषद कंठस्थ हो सकते हैं—मगर गोद लिया तुमने ज्ञान; तुम्हारे गर्भ में पका नहीं। तुम उसे जन्म देने की प्रसव—पीड़ा से नहीं गुजरे। तुमने कीमत नहीं चुकाई। और बिना कीमत जो मिल जाए, दो कौड़ी का है। जितनी कीमत चुकाओगे उतना ही मूल्य होता है। पंडित एक तो सत्य की खोज में जाता नहीं और जाए तो सबसे बड़ी अड़चन यही होती है कि ज्ञान से कैसे छुटकारा हो—तथाकथित ज्ञान से कैसे छुटकारा हो? अज्ञान से छूटना इतना कठिन नहीं है क्योंकि अज्ञान निर्दोष है। सभी बच्चे अज्ञानी हैं। लेकिन बच्चों की निर्दोषता देखते हो! सरलता देखते हो, सहजता देखते हो। अज्ञानी और ज्ञान के बीच ज्यादा फासला नहीं है। क्योंकि अज्ञानी के पास कुछ बातें हैं जो ज्ञान को पाने की अनिवार्य शर्ते हैं : जैसे सरलता है, जैसे निर्दोषता है, जैसे सीखने की क्षमता है, झुकने का भाव है, समर्पण की प्रक्रिया है। अज्ञानी की सबसे बड़ी संपदा यही है कि उसे अभी जानने की भ्रांति नहीं है। उसे साफ है, स्पष्ट है कि मुझे पता नहीं है। जिसको यह पता है कि मुझे पता नहीं है, वह तलाश में निकल सकता है। या कोई अगर जला हुआ दीया मिल जाए तो वह उसके पास बैठ सकता है। सत्संग की सुविधा है। इसलिए तो जीसस ने कहा : 'धन्य हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। 'पंडित की बड़ी से बड़ी कठिनाई यही है कि बिना जाने उसे पता चलता है कि मैं जानता हूं। न ही उसे एक भी उत्तर मिला है जीवन से, लेकिन किताबों ने सब उत्तर दे दिए हैं उधार, बासे, पिटे—पिटाए, परंपरा से। महावीर को बारह वर्ष लगे मौन साधने में! कोई जैनशास्त्र यह नहीं कहता कि बारह वर्ष लगने का अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ यही होता है कि मन में खूब धूम रही होगी विचारों की। होना स्वाभाविक भी है। राजपुत्र थे, सुशिक्षित थे, बड़े—बड़े पंडितों के पास बैठकर सब सीखा होगा, जो सीखा जा सकता था। सब कलाओं में पारंगत थे। वही पारंगतता, वही कुशलता, वही ज्ञान बन गई चट्टान। उसी को तोड्ने में बारह वर्ष सतत श्रम करना पड़ा, तब कहीं मौन हुए; तब कहीं चुप्पी आयी; तब कहीं फिर से अज्ञानी हुए। झूठे ज्ञान से छुटकारा हुआ। कागज फिर कोरा हुआ। और जब कागज कोरा हो तो परमात्मा कुछ लिखे। और जब अपना उपद्रव शांत हो, अपनी भीड़— भाड़ छटे, अपना शोरगुल बंद हो तो परमात्मा की वाणी सुनाई पड़े, उपनिषद् का जन्म हो, ऋचाएं गंजे तुम्हारे हृदय से। तुम्हारी श्वासें सुवासित हों ऋचाओं से। तुम जो बोलो सो शास्त्र हो जाए। तुम उठो—बैठो, तुम आख खोलो, आख बंद करो और शास्त्र झरें। तुम्हारे चारों तरफ वेद की हवाएं उठें। कुरान का संगीत पैदा होता है तभी, जब तुम्हारे भीतर शून्य गहन होता है। जैसे बादल जब भर जाते हैं वर्षा के जल से तो बरसते हैं। और जब आत्मा शून्य के जल से भर जाती है तो बरसती है। मुहम्मद, कबीर, जगजीवन ये बे—पढे लिखे लोग हैं। ये निपट गंवार हैं, ग्रामीण हैं। सभ्यता का, शिक्षा का, संस्कार का, इन्हें कुछ पता नहीं है। बड़ी सरलता से इनके जीवन में क्रांति घटी है। इन्हें बारह बारह वर्ष महावीर की भांति, या बुद्ध की भांति मौन को साधना नहीं पड़ा है। इनके भीतर कूड़ा—करकट ही न था। विद्यापीठ ही नहीं गए थे। विश्वविद्यालयों में कचरा इन पर डाला नहीं गया था। ये कोरे ही थे। संसार में तो मूढ़ समझे जाते। लेकिन ध्यान रखना, संसार का और परमात्मा का गणित विपरीत है। जो संसार में मूढ़ है उसकी वहां बड़ी कद्र है। फिर जीसस को दोहराता हूं। जीसस ने कहा है : 'जो यहां प्रथम हैं वहां अंतिम, और जो यहां अंतिम हैं वहां प्रथम हैं। यहां जिनको तुम मूढ़ समझ लेते हो... और मूढ़ हैं; क्योंकि धन कमाने में हार जाएंगे, पद की दौड़ में हार जाएंगे। न चालबाज हैं न चतुर हैं। कोई भी धोखा दे देगा। कहीं भी धोखा खा जाएंगे। खुद धोखा दे सकें, तो सवाल ही नहीं; अपने को धोखे से बचा भी न सकेंगे। इस जगत् में तो उनकी दशा दुर्दशा की होगी। लेकिन यही हैं वे लोग जो परमात्मा के करीब पहुंच जाते हैं—सरलता से पहुंच जाते हैं।

सरल स्वभाव

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