जाना ही था तो रूके क्यों ?
अकड़ना ही था तो झुके क्यों ?
लड़ना ही था तो मनाया क्यों ?
कूछ एसे ही सवालों के जवाब, या जवाब में सवाल, सोचते हूये आज फिर बिस्तर कि ओर मुड़ जाऊँगा।
और लेटे हुऐ ऊपर टंगे पंखे को देख कर मन ही मन मुसकुराऊंगा।
और कहूँगा क्या किस्मत हे तेरी जो तेरी पंखुडिया तेरे साथ है।
जिसके सहारे तू अपना अस्तिव संभाले हुये है, वरना बिन पंखुडी तेरा अस्तिव मूझ जैसा होता।
जो बिजली रूपी जीवन के सहारे घूम तो पाता पर पंखूडिया ना होने के कारण हवा रूपी खूशियाँ ना फैला पाता।
तेरी याद लोगों बस गर्मी में आती है, पर तेरी पंखूडियाँ हर समय तेरा साथ निभाती है।
तू बहुत खुश नसीभ हे जो तू अकेला नहीं है वरना तो ये वृधाश्रम की चार दिवारे हमेशा अकेले होने का भौद कराती है।
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