उसके एक नज़र पाने को घंटों श्रंगार करती हूं
प्रेम पथ पर थोड़ा- थोड़ा रोज आगे बढ़ती हूं
वैसे तो शरीफ़ सा है वो लड़का
मगर रोज चौराहे पर बस
मेरे इंतजार आवारा सा खड़ा रहता है
कहता तो कुछ नहीं मगर
नज़रें मिलते ही बस हल्का सा वो हस देता है
मैं भी तब शर्म से नज़रें झुका लेती हूं
दबी सी जुबान से थोड़ा सा मुस्कुरा देती हूं
आज कल यही सिलसिला हर रोज चल रहा है
कौन पहले पहल करेगा
इसी असमंजस में रह रोज कट रहा है ?
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