हाॅं उलझ जाते हैं खुद के कश्मकश में...
सुलझा दिया करो ना...
गरम अंगारों सा जलते हैं अपने आप में ही...
बारिश की बूंद सा हम पर ,बरस जाया करो ना...
ऑंखें वक़्त बे-वक्त नम रहने लगी हैं फिर से...
अश्क बन बह जाया करो ना...
हर रोज एक नया तूफान उठ जाता हैं मुझमें...
हुकूम-सा हाथ थाम ठहर जाया करो ना...…..
©#alfaz_e_shayra
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