हवा चले अनुकूल तो नावें नौसिखिया भी खे लेते हैं, सहज डगर पर लंगडे़ भी चल वैसाखी से लेते हैं,
मिट जाते हैं जो दीप स्वयं रोशन कर लाख चिरागों को, नमन उन्हें है जो लौटा लाते गई बहारों को ।।
------પ્રસૂન કૃષ્ણા
टोका-टाकी से मैं झुन्झुला भी जाऊँ कभी तो,
समझदार हो, अब न कुछ बोलुंगी मैं;
ऐसा अक्सर बोलकर वो रूठती है,
फिर अगले ही पल उसकी चिन्ता में हिदायत होती है,
.........माँ कितना झूठ बोलती है ।
माँ झूठ बोलती है,
सुबह उठाने को चार बजे को छः कहती है
नहालो नहालो के घर में नारे बुलन्द करती है,
मेरी खराब तबियत को दोष बुरी नजर पर मढ़ती है,
मेरी परेशानियों का बडा़ बवण्डर करती है;
माँ झूठ बोलती है.....।
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