किसी के न हुए तेरे जाने के बाद
पहचान भी न पाओगे आने के बाद
वक्त - ए - गुरबत ज़िंदा कहां छोड़ेगी
कुछ भी तो नहीं बचता वक्त गुज़र जाने के बाद
तुझे गुरूर हमें उसूलों ने बांध रखा है
बात वैसे भी बनती कहां है बिगड़ जाने के बाद
अब मेहफिलें भी वीरानी सी दिखाई देती हैं
ये ही मुमकिन हुआ तेरे उधर जाने के बाद
गरूर झूठा ही सही उम्मीद लगा रखी थी
खामोश तो तब हुए तेरे मुकर जाने के बाद
दुश्मनी लाख करो मगर दायरा भी हो
दूर हो जाता है हर कोई दिल से उतर जाने के बाद
शायर - बाबू कुरैशी
फुरसत कहां मुस्कुराने की
वजह क्या हुई उसके जाने की
जानते हैं लौटकर आयेंगे नहीं
आदत फिर भी नहीं जाती घर सजाने की
किसका कसूर है और खतावार कौन है
किसी को तो ज़रूर लगी आदत इस ज़माने की
मैं ही कसूरवार हूं लगने लगा मुझे
वो बेकसूर थे ज़रूरत फिर क्यों पड़ी नज़रें झुकाने की
आप बेफिक्र हैं जीना भी आपको आता है
ज़िंदगी से नाराज़ हैं आदत भी नहीं खुद को खुद से मनाने की
शायर - बाबू कुरैशी
बद्दुआ देकर गया मुस्कुराने के बाद
याद फिर भी आता रहा जाने के बाद
वादे इरादे रस्में सभी तोड़ दी उसने
दुआ फिर भी मांगते रहे इस तरह मिटाने के बाद
गैरीयत करता रहा उम्मीद छोड़ी नहीं हमने
हर बार इंतज़ार करते रहे घर सजाने के बाद
एक शिद्दत से चाहा टूटकर उसे
वरना कोई याद आता नहीं भूल जाने के बाद
फरेब धोखा ये सभी का हुनर था उसे
आखिर सीख ही जाता है ये सब उसूल जाने के बाद
शायर - बाबू कुरैशी
दर्द की अगर कोई ज़ुबां हो जाये
मजबूर बेसहारों की भी सुबह हो जाये
हज़ार कोशिशें बेकार हो जायें बदनाम करने की
मुखालिफ ज़माना फिर चाहे कितना बद्ज़ुबां हो जाये
शायर - बाबू कुरैशी
इन्हें इस हाल में छोड़कर इबादत हो नहीं सकती
इन्हें संवार देगा तो भक्ति तेरी खो नहीं सकती
तुम कैसे हिंदू और कैसे मुसलमान हो
इससे बत्तर और इंसानीयत हो नहीं सकती
शायर - बाबू कुरैशी
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