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#भक्ति  *जय सियाराम* 

हमें शौक नही लकीर का फकीर बनने का 
    अपनी तो आदत खुद का रास्ता बनाने की।
मानते हैं किसी को तो दिल से मानते हैं 
    अपनी फितरत नहीं झूठा प्यार जताने की।
हाथ की लकीर पर नहीं विश्वास कर्म पर है 
     गगन को छूना, मेहनत अपनी चरम पर है,
किसी धन्नासेठ के आगे झुके न सर अपना
     अपनी आदत राम के चरण सर झुकाने की।।

      स्वरचित मौलिक रचना-राम जी तिवारी"राम"
                           उन्नाव (उत्तर प्रदेश)

©Ramji Tiwari

सुप्रभात मित्रों जय सियाराम @Author Shivam kumar Mishra (Shivanjal) @santosh tiwari Sudha Tripathi @deepshi bhadauria @Raushni Tripathi भक

135 View

बहन, जब पहली बार गोद मे आती है। एक पुरुष का वात्सल्य से प्रथम परिचय होता है। बहन, जब तुतलाती जवान से भाई के, पीछे पीछे बोलती है, माँ, पापा, बाबा। एक गुरु का जन्म होता है। बहन जब लड़खड़ा के चलना सीखती है। आगे बढ़ कर थाम लेते है कंधा। दो नरम हाथ। पहली बार मजबूत होते हृदय में, बंधता है साहस। सहारा होने का। पौरुष का वीरता से प्रथम परिचय होता है। यूँ ही क्रमबद्ध बहन बनाती है भाई को। पर्बत, आकाश ,बरगद। नींव,दीवार, घर, में उसके नाम का भरोसा देती है। भाई के पौरुष को मानवता का लिबास। पहनाती है बहन। सिमटी सकुचाई सी रहने वाली गुड़िया। न जाने कब मुसबीत से लड़ने वाली मर्दानी बन जाती है, पता ही नहीं चलता।। बहन से ही घर बगिया उपवन। बहन से सारे उत्सव हैं। भाई एक बलिष्ट शरीर का रूपक है। बहन आत्मा है पावन। बहन बनाती पुरुष को मानव। और समझाती है जीवन। ©निर्भय चौहान

#कविता #love_shayari  बहन,
जब पहली बार गोद मे आती है।
एक पुरुष का वात्सल्य से प्रथम परिचय होता है।

बहन,
जब तुतलाती जवान से भाई के,
पीछे पीछे बोलती है,
माँ, पापा, बाबा।
एक गुरु का जन्म होता है।

बहन 
जब लड़खड़ा के चलना सीखती है।
आगे बढ़ कर थाम लेते है कंधा।
दो नरम हाथ।
पहली बार मजबूत होते हृदय 
में,
बंधता है साहस।
सहारा होने का।
पौरुष का वीरता से प्रथम परिचय होता है।

यूँ ही क्रमबद्ध बहन बनाती है भाई को।
पर्बत, आकाश ,बरगद।
नींव,दीवार, घर, में उसके नाम का भरोसा देती है।

भाई के पौरुष को मानवता का लिबास।
पहनाती है बहन।

सिमटी सकुचाई सी रहने वाली गुड़िया।
न जाने कब मुसबीत से लड़ने वाली मर्दानी बन जाती है,
पता ही नहीं चलता।।

बहन से ही घर बगिया उपवन।
बहन से सारे उत्सव हैं।

भाई एक बलिष्ट शरीर का रूपक है।
बहन आत्मा है पावन।
बहन बनाती पुरुष को मानव।
और समझाती है जीवन।

©निर्भय चौहान

White Meri jaan itni achi hai ki meri ek choti si nadani ko vi mera pyaar samjhti hai wo is kadaar mujhe samjhti hai ©Mùśâfîř Tèŕá

#International_Chess_Day #शायरी  White Meri jaan itni achi hai ki meri ek choti si nadani ko vi mera pyaar samjhti hai wo is kadaar mujhe samjhti hai

©Mùśâfîř Tèŕá

#International_Chess_Day @mirrorsouls_sqsh दुर्लभ "दर्शन" @Author Shivam kumar Mishra Sudha Tripathi @Gautam Kumar

15 Love

White कितने टुकड़ों में खुद को बांट के हम बैठे हैं। बिना मतलब ही मन को डांट के हम बैठे हैं। जिंदगी की नदी में हम पत्थर लुढ़कते पत्थर थे। सारी दुनिया से खुद को छांट के हम बैठे है।। कोई हीरा कोई पन्ना कोई मूंगा कोई मोती। कोई सोना कोई चांदी कोई दीपक कोई ज्योति। हैं सारे टाट के पैबंद जिसे बांट के हम बैठे हैं। निर्भय चौहान ©निर्भय निरपुरिया

#कविता #moon_day  White कितने टुकड़ों में खुद को बांट के हम बैठे हैं।
बिना मतलब ही मन को डांट के हम बैठे हैं।

जिंदगी की नदी में हम पत्थर लुढ़कते पत्थर थे।
सारी दुनिया से खुद को छांट के हम बैठे है।।

कोई हीरा कोई पन्ना कोई मूंगा कोई मोती।
कोई सोना कोई चांदी कोई दीपक कोई ज्योति।
हैं सारे टाट के पैबंद जिसे बांट के हम बैठे हैं।

निर्भय चौहान

©निर्भय निरपुरिया

White हद-ए-शहर से निकली तो गाँव गाँव चली, कुछ यादें मेरे संग पाँव पाँव चली। सफ़र जो धूप का किया तो तजुर्बा हुआ, वो ज़िन्दगी ही क्या जो छांव-छांव चली।। ©Mukesh Bamniya

#शायरी #love_shayari #Emotional #nojato #write  White हद-ए-शहर से निकली तो गाँव गाँव चली,
 कुछ यादें मेरे संग पाँव पाँव चली। 
सफ़र जो धूप का किया तो तजुर्बा हुआ,
 वो ज़िन्दगी ही क्या जो छांव-छांव चली।।

©Mukesh Bamniya

White बांट दो सबको, संतुलन बना रहेगा पर संतुलन तो बराबरी हुई ना? जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो , यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी? प्रजा कौन है,और राजा कौन? फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा सबको ज्ञात होनी चाहिए कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं, व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज किसने निर्मित कि ये खाई, ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच? स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार, सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे? जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग कब तक कहलाएंगे माओवादी? देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी? कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी? दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते, जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद, तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी उसकी मृत्यु का कारण बनती है, तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को आज भी प्राथमिकता नहीं मिली क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं? क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है? या है उसे पर इनका भी हक यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों? ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों? जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो ©Priya Kumari Niharika

 White बांट दो सबको,  संतुलन बना रहेगा
 पर संतुलन तो बराबरी हुई ना?
 जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो ,
 यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी?
 प्रजा कौन है,और राजा कौन?
 फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा
 सबको ज्ञात होनी चाहिए
 कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, 
और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं,
 व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज
 किसने निर्मित कि ये खाई,  ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच?
 स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार,
 सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार 
 दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई
  मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े
 छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे 
 अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के
 और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे?
 जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग 
 कब तक कहलाएंगे माओवादी?
 देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी?
 कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी?
 दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां 
 व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से
 आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई 
 आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते,
 जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है 
आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद,
 तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी
उसकी मृत्यु का कारण बनती है,
 तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर 
 डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना 
 और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर
तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में 
 यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर 
 विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से
 यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी 
 पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर 
मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को 
 आज भी प्राथमिकता नहीं मिली 
 क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं?
 क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है?
 या है उसे पर इनका भी हक 
 यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों?
 ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों?
 जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये 
 अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं 
 याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं 
 अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे 
 तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो

©Priya Kumari Niharika
#भक्ति  *जय सियाराम* 

हमें शौक नही लकीर का फकीर बनने का 
    अपनी तो आदत खुद का रास्ता बनाने की।
मानते हैं किसी को तो दिल से मानते हैं 
    अपनी फितरत नहीं झूठा प्यार जताने की।
हाथ की लकीर पर नहीं विश्वास कर्म पर है 
     गगन को छूना, मेहनत अपनी चरम पर है,
किसी धन्नासेठ के आगे झुके न सर अपना
     अपनी आदत राम के चरण सर झुकाने की।।

      स्वरचित मौलिक रचना-राम जी तिवारी"राम"
                           उन्नाव (उत्तर प्रदेश)

©Ramji Tiwari

सुप्रभात मित्रों जय सियाराम @Author Shivam kumar Mishra (Shivanjal) @santosh tiwari Sudha Tripathi @deepshi bhadauria @Raushni Tripathi भक

135 View

बहन, जब पहली बार गोद मे आती है। एक पुरुष का वात्सल्य से प्रथम परिचय होता है। बहन, जब तुतलाती जवान से भाई के, पीछे पीछे बोलती है, माँ, पापा, बाबा। एक गुरु का जन्म होता है। बहन जब लड़खड़ा के चलना सीखती है। आगे बढ़ कर थाम लेते है कंधा। दो नरम हाथ। पहली बार मजबूत होते हृदय में, बंधता है साहस। सहारा होने का। पौरुष का वीरता से प्रथम परिचय होता है। यूँ ही क्रमबद्ध बहन बनाती है भाई को। पर्बत, आकाश ,बरगद। नींव,दीवार, घर, में उसके नाम का भरोसा देती है। भाई के पौरुष को मानवता का लिबास। पहनाती है बहन। सिमटी सकुचाई सी रहने वाली गुड़िया। न जाने कब मुसबीत से लड़ने वाली मर्दानी बन जाती है, पता ही नहीं चलता।। बहन से ही घर बगिया उपवन। बहन से सारे उत्सव हैं। भाई एक बलिष्ट शरीर का रूपक है। बहन आत्मा है पावन। बहन बनाती पुरुष को मानव। और समझाती है जीवन। ©निर्भय चौहान

#कविता #love_shayari  बहन,
जब पहली बार गोद मे आती है।
एक पुरुष का वात्सल्य से प्रथम परिचय होता है।

बहन,
जब तुतलाती जवान से भाई के,
पीछे पीछे बोलती है,
माँ, पापा, बाबा।
एक गुरु का जन्म होता है।

बहन 
जब लड़खड़ा के चलना सीखती है।
आगे बढ़ कर थाम लेते है कंधा।
दो नरम हाथ।
पहली बार मजबूत होते हृदय 
में,
बंधता है साहस।
सहारा होने का।
पौरुष का वीरता से प्रथम परिचय होता है।

यूँ ही क्रमबद्ध बहन बनाती है भाई को।
पर्बत, आकाश ,बरगद।
नींव,दीवार, घर, में उसके नाम का भरोसा देती है।

भाई के पौरुष को मानवता का लिबास।
पहनाती है बहन।

सिमटी सकुचाई सी रहने वाली गुड़िया।
न जाने कब मुसबीत से लड़ने वाली मर्दानी बन जाती है,
पता ही नहीं चलता।।

बहन से ही घर बगिया उपवन।
बहन से सारे उत्सव हैं।

भाई एक बलिष्ट शरीर का रूपक है।
बहन आत्मा है पावन।
बहन बनाती पुरुष को मानव।
और समझाती है जीवन।

©निर्भय चौहान

White Meri jaan itni achi hai ki meri ek choti si nadani ko vi mera pyaar samjhti hai wo is kadaar mujhe samjhti hai ©Mùśâfîř Tèŕá

#International_Chess_Day #शायरी  White Meri jaan itni achi hai ki meri ek choti si nadani ko vi mera pyaar samjhti hai wo is kadaar mujhe samjhti hai

©Mùśâfîř Tèŕá

#International_Chess_Day @mirrorsouls_sqsh दुर्लभ "दर्शन" @Author Shivam kumar Mishra Sudha Tripathi @Gautam Kumar

15 Love

White कितने टुकड़ों में खुद को बांट के हम बैठे हैं। बिना मतलब ही मन को डांट के हम बैठे हैं। जिंदगी की नदी में हम पत्थर लुढ़कते पत्थर थे। सारी दुनिया से खुद को छांट के हम बैठे है।। कोई हीरा कोई पन्ना कोई मूंगा कोई मोती। कोई सोना कोई चांदी कोई दीपक कोई ज्योति। हैं सारे टाट के पैबंद जिसे बांट के हम बैठे हैं। निर्भय चौहान ©निर्भय निरपुरिया

#कविता #moon_day  White कितने टुकड़ों में खुद को बांट के हम बैठे हैं।
बिना मतलब ही मन को डांट के हम बैठे हैं।

जिंदगी की नदी में हम पत्थर लुढ़कते पत्थर थे।
सारी दुनिया से खुद को छांट के हम बैठे है।।

कोई हीरा कोई पन्ना कोई मूंगा कोई मोती।
कोई सोना कोई चांदी कोई दीपक कोई ज्योति।
हैं सारे टाट के पैबंद जिसे बांट के हम बैठे हैं।

निर्भय चौहान

©निर्भय निरपुरिया

White हद-ए-शहर से निकली तो गाँव गाँव चली, कुछ यादें मेरे संग पाँव पाँव चली। सफ़र जो धूप का किया तो तजुर्बा हुआ, वो ज़िन्दगी ही क्या जो छांव-छांव चली।। ©Mukesh Bamniya

#शायरी #love_shayari #Emotional #nojato #write  White हद-ए-शहर से निकली तो गाँव गाँव चली,
 कुछ यादें मेरे संग पाँव पाँव चली। 
सफ़र जो धूप का किया तो तजुर्बा हुआ,
 वो ज़िन्दगी ही क्या जो छांव-छांव चली।।

©Mukesh Bamniya

White बांट दो सबको, संतुलन बना रहेगा पर संतुलन तो बराबरी हुई ना? जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो , यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी? प्रजा कौन है,और राजा कौन? फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा सबको ज्ञात होनी चाहिए कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं, व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज किसने निर्मित कि ये खाई, ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच? स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार, सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे? जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग कब तक कहलाएंगे माओवादी? देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी? कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी? दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते, जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद, तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी उसकी मृत्यु का कारण बनती है, तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को आज भी प्राथमिकता नहीं मिली क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं? क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है? या है उसे पर इनका भी हक यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों? ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों? जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो ©Priya Kumari Niharika

 White बांट दो सबको,  संतुलन बना रहेगा
 पर संतुलन तो बराबरी हुई ना?
 जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो ,
 यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी?
 प्रजा कौन है,और राजा कौन?
 फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा
 सबको ज्ञात होनी चाहिए
 कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, 
और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं,
 व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज
 किसने निर्मित कि ये खाई,  ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच?
 स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार,
 सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार 
 दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई
  मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े
 छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे 
 अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के
 और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे?
 जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग 
 कब तक कहलाएंगे माओवादी?
 देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी?
 कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी?
 दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां 
 व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से
 आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई 
 आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते,
 जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है 
आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद,
 तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी
उसकी मृत्यु का कारण बनती है,
 तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर 
 डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना 
 और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर
तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में 
 यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर 
 विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से
 यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी 
 पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर 
मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को 
 आज भी प्राथमिकता नहीं मिली 
 क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं?
 क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है?
 या है उसे पर इनका भी हक 
 यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों?
 ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों?
 जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये 
 अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं 
 याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं 
 अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे 
 तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो

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