ग़ज़ल - 2122 2122 2212 1222 कोई उलफ़त में मरूँगा | हिंदी शायरी

"ग़ज़ल - 2122 2122 2212 1222 कोई उलफ़त में मरूँगा पर इक़ दुआ नही लूंगा मैं किसी यक शख्स की अब कोई हया नही लूंगा वो बड़े घर की कोई शह'जा'दी है तो रहे फिर वो यार मैं इससे जियासा अब ये बला नही लूंगा देखो कितना खून टप'का है कल मिरी जबीं से याँ मैं कभी इन हा'थों में को'ई आयना नही लूंगा तू कभी आया नही मुझको देखने भी याँ ताबिश अब मुझे कोई ज'हर दे दो, मैं दवा नही लूंगा सोच'ती है आँधियाँ भी दी'पक बुझाने से पहले मैं बड़ा ख़ुद-ग़र्ज हूँ, मैं दी'पक नया नही लूंगा मुझसे तो फिर इश्क करने की शर्त भी यही है इक़ मैं तिरी कोई जबाँ फिर अहद-ए-वफ़ा नही लूंगा कुछ दिनों पहले ही कोई घर'बार लुटा है उस ज़ा'निब अब जमीं पर रह लूंगा उस ज़ानिब मकाँ नही लूंगा ये कलेजा कांपता है कोई ग़ज़ल सुनाने में रे जिया शा'यर हूँ, दो कौ'ड़ी के सिवा नही लूंगा ©Jiya Wajil khan"

 ग़ज़ल - 2122 2122 2212 1222

कोई   उलफ़त  में  मरूँगा   पर   इक़   दुआ   नही   लूंगा
मैं    किसी  यक  शख्स  की  अब  कोई  हया  नही  लूंगा

वो  बड़े  घर  की   कोई   शह'जा'दी  है   तो  रहे फिर  वो
यार    मैं   इससे   जियासा   अब   ये   बला   नही   लूंगा

देखो   कितना   खून   टप'का है कल  मिरी  जबीं  से  याँ
मैं    कभी    इन   हा'थों   में  को'ई   आयना   नही   लूंगा

तू   कभी  आया  नही   मुझको   देखने  भी  याँ    ताबिश
अब    मुझे    कोई    ज'हर   दे  दो, मैं   दवा   नही   लूंगा

सोच'ती   है   आँधियाँ   भी    दी'पक   बुझाने   से   पहले
मैं   बड़ा     ख़ुद-ग़र्ज   हूँ,  मैं  दी'पक    नया   नही   लूंगा

मुझसे  तो  फिर   इश्क  करने  की  शर्त भी  यही  है  इक़
मैं  तिरी   कोई   जबाँ   फिर   अहद-ए-वफ़ा   नही   लूंगा

कुछ   दिनों पहले ही कोई  घर'बार  लुटा  है  उस ज़ा'निब
अब  जमीं पर   रह   लूंगा    उस  ज़ानिब  मकाँ नही लूंगा

ये     कलेजा    कांपता   है   कोई     ग़ज़ल    सुनाने   में
रे   जिया  शा'यर   हूँ, दो  कौ'ड़ी    के    सिवा  नही  लूंगा

©Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 2212 1222 कोई उलफ़त में मरूँगा पर इक़ दुआ नही लूंगा मैं किसी यक शख्स की अब कोई हया नही लूंगा वो बड़े घर की कोई शह'जा'दी है तो रहे फिर वो यार मैं इससे जियासा अब ये बला नही लूंगा देखो कितना खून टप'का है कल मिरी जबीं से याँ मैं कभी इन हा'थों में को'ई आयना नही लूंगा तू कभी आया नही मुझको देखने भी याँ ताबिश अब मुझे कोई ज'हर दे दो, मैं दवा नही लूंगा सोच'ती है आँधियाँ भी दी'पक बुझाने से पहले मैं बड़ा ख़ुद-ग़र्ज हूँ, मैं दी'पक नया नही लूंगा मुझसे तो फिर इश्क करने की शर्त भी यही है इक़ मैं तिरी कोई जबाँ फिर अहद-ए-वफ़ा नही लूंगा कुछ दिनों पहले ही कोई घर'बार लुटा है उस ज़ा'निब अब जमीं पर रह लूंगा उस ज़ानिब मकाँ नही लूंगा ये कलेजा कांपता है कोई ग़ज़ल सुनाने में रे जिया शा'यर हूँ, दो कौ'ड़ी के सिवा नही लूंगा ©Jiya Wajil khan

#जिया

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