ग़ज़ल - 2122 2122 2222 222
बैठी रहती हूँ मग़र इक़ आजारी खल जाती है
अब मिरे हाथों से अम्मी हर रोटी जल जाती है
तुम कबसे बैठे हो चा'हत लेकर इस कूचे में
दाग़ बैठे रहने से अब बी'मा'री पल जाती है
मैंने देखा है मुहब्बत में पड़'कर अर'सों पहले
इस मुहब्बत में रजा हर यक हसरत ढल जाती है
ये नही की कोई मुझ'को अप'ने पहलू में रख ले
माँ कहाँ हो तुम, मिरे सिर की चो'टी खुल जाती है
कोई सहरा अब तिरी तस्वीरें लिखता है मुझपे
अब याँ कोई ज़िन्दगी, जो बेवजहा चल जाती है
इक़ दो पर्दे फिर ग़ज़ल की चौखट पर रखते है हम
कल सुना था इक़ हवा है, फ़नकारी मल जाती है
©Jiya Wajil khan
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